कुछ ही दिन पहले हमारे संगठन के एक अधिकारी सेवानिवृत्त हुएा सेवानिवृत्त होने के पश्चात एक दिन वह अपने किसी व्यक्तिगत कार्य से कार्यालय आए थेा मुझसे कहने लगे कि लखनउ में कहीं खेती की जमीन मिले तो बताना, मैं खरीदना चाहता हूँा यह सुनकर मेरी उत्सुकता उबाल मारने लगी तो मैने पूछ ही लिया, ''सर, खेती की जमीन का आप क्या करेंगे?'' वह बोले, ''अरे भाई, उस पर एक फार्म हाउस डेवलप करवाउंगा ताकि साल में कुछ दिन वहॉं चैन से गुजार सकूँा साथ ही कुछ फसल वगैरह भी तैयार करवाउंगा ताकि कम से कम शुद्ध और पैष्टिक चीज खाने को नसीब हो सकेा'' उनकी बात सुनकर मैं अपने विचारों में खो गया और यकायक मेरे दिमाग में यह लाइन सूझी, ''गॉंव से शहर, शहर से गॉंव''
एक ओर हमारे गॉंवों का युवा वर्ग है जो शहरों की चकाचौंध की म़गत़ष्णा में फँसकर शहरों की ओर पलायन कर रहा हैा आप किसी भी गॉंव में चले जाइये, वहॉं 20 से 35 वर्ष की आयु वर्ग के लोग आपको बहुत कम देखने को मिलेंगेा ज्यादातर रोजी'रोटी के लिए शहरों में चले जाते हैंा गॉंव में दिखते हैं तो महिलाएं, बूढे और बच्चेा जब से गॉंवों के कोने'कोने में बुद्धू बक्से यानी टी;वी; की पहुँच हुई है तबसे शहरों की ओर यह पलायन और बढा है क्योंकि टीवी ही वह सर्वसुलभ जरिया है जो शहरी दुनिया की माया से गॉंवों के लोगों को रूबरू कराता हैा
दूसरी ओर शहरों में रहने वाला मध्यम वर्ग जो शहर का सबसे बड़ा तबका हैा दरअसल इस मध्यम वर्ग की जडें गांवों में ही हैंा इसलिए वह शहरों में बढ्ती भीड् भाड् और चिल्ल पों में खोते जा रहे अपनेपन की वजह से रह रह कर घबरा उठता है और सोचता है कि शहर से कहीं दूर किसी गांव सरीखे इलाके में आशियाना होता तो कितना अच्छा होताा एक ओर गांव का युवा वर्ग है जो खेती करना ही नहीं चाहता तो दूसरी ओर एक शहरी तबका ऐसा भी है जो शहर से दूर किसी फार्म हाउस पर खेती करवाकर उससे तैयार अनाज खाना चाहता हैा दोनों अपनी स्थिति से असंतुष्ट हैं लेकिन विडम्बना यह है कि दोनों के पास विकल्प कम हैं और जो हैं वे बहुत कठिन हैंा
1 टिप्पणी:
घनश्याम जी ,
मेरा भी दिल करता है शहर की भीड़-भाड़ से दूर कहीं गाँव में सुकून की जिंदगी बसर की जाए।
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