पक्षियों की भूख-प्यास बुझाने का जो सर्वव्यापी अभियान पर्यावरणप्रेमियों ने छेड़ रखा है, उससे प्रभावित होकर हम भी मिट्टी के दो छोटे प्याले ले आये। एक में पानी और एक में दाल और चावल के दाने भर कर सामने वाली बॉल्कनी में रख दिये। कई दिनों से देख रहे थे कि जाे भी पक्षी आता, केवल पानी पीकर चला जाता। चारे की तरफ कोई ताकता भी नहीं, अगर ताकता भी तो खाता नहीं। आजकल इंसानों की तरह पशु-पक्षियों की भी आहार सम्बन्धी प्राथमिकताएं बदल-सी गई हैं।
आज सुबह-सुबह अखबार पढ़ रहे थे जिसमें अक्षय तृतीया की उपस्थिति प्रभावशाली तरीके से अधिकांश पन्नों पर दर्ज थी। हमारी माताजी बाल्कनी में खड़ी थी कि तभी एक बंदर कूदकर आया और बाल्कनी पर आकर बैठ गया। वैसे इन बन्दर महाशय ने पहली बार हमारी बॉल्कनी का दौरा नहीं किया था। सोसाइटी में कई दिन से इनका औचक निरीक्षण हाे रहा था। माताजी तुरन्त भागकर कमरे में आ गईं। बंदर महाशय प्याले में रखे दाने चुगने लगे। यह दृश्य देखकर हम सोचने लगे कि दाना चुगने आई चिडि़या तो सुना और देखा था, पर दाना चुगने आया बन्दर पहली बार देख रहा हूँ। तभी माताजी को न जाने कहॉं से ध्यान आया कि अक्षय तृतीया पर तो दान किया जाता है। वह एक कटोरी में चने लेकर आईं बन्दर को खिलाने के लिए। मैनें कहा कि अक्षय तृतीया पर ताे सोने का दान दिया जाता है। इस पर मॉं का सीधा सरल सा जवाब था कि दान तो दान होता है। उस समय उनका डर न जाने कहॉं गायब हो गया और बाल्कनी का जाली वाला दरवाजा खोलकर उन्होंने आराम से बंदर महाशय के सामने रखे प्याले में चने भर दिये। शायद इसके पीछे बंदर को हनुमान जी का अवतार मानने का कारण भी रहा होगा। बंदर महाशय आराम से बैठकर चनों का रसास्वादन करते रहे। फिर कुछ देर प्रतीक्षा की। शायद कुछ और मिलने की आशा थी। फिर कोई और बॉल्कनी या दरवाजे पर घात लगाने चल दिये। हमने माताजी को समझाया कि ऐसा करने से इनका आगमन उसी तरह बढ़ जायेगा जैसे किसी सरकारी बाबू को एक बार रिश्वत देने से अगली बार उसकी रिश्वत लेने की इच्छा और बलवती हो जाती है। लेकिन माताजी को तो प्रकृति और परम्परा का मेल करना था सो उन्हाेनें कर दिया।
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