एक बार एक युवा धनुर्धर ने, जिसे धनुर्विद्या की कई प्रतियोगिताओं में विजयश्री प्राप्त हो चुकी थी, अहंकार में आकर धनुर्विद्या के एक ख्यातिप्राप्त गुरु को चुनौती दे डाली। युवक ने पहले एक वृक्ष के तने पर लक्ष्य चिन्ह बनाकर उसे अपने तीर से बेध दिया। फिर अपना तकनीकी कौशल दिखाते हुए उसने दूसरा तीर चलाकर पहले वाले तीर के दो फाड़ कर दिये।
वृद्ध गुरु की ओर उन्मुख होकर उसने कहा, ’’क्या आप ऐसा कर सकते हैं?’’
वृद्ध गुरु न तो विचलित हुए न ही उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया बल्कि उस युवक को अपने साथ एक पहाड़ी पर चलने के लिए कहा। युवक उनका मन्तव्य नहीं समझ सका लेकिन जिज्ञासावश उनके पीछे चल पड़ा। चलते चलते वे एक बड़ी और गहरी दरार के पास पहुंचे। उस दरार को पार करने के लिए लकड़ी का एक लट्ठा पड़ा हुआ था जो बहुत अस्थिर और फिसलन भरा था।
गुरु स्थिरचित्त होकर उस लट्ठे पर चलते हुए बीचोबीच जाकर खड़े हो गए। वहॉं से उन्होंने दूर खड़े एक वृक्ष को लक्ष्य बनाकर तीर चलाया जो सीधा वृक्ष के तने में जाकर लगा। गुरु सुरक्षित वापस आकर अपनी जगह पर खड़े हो गये और युवक से कहा, ’’अब तुम्हारी बारी है।’’ लेकिन वह युवक बाण चलाना तो दूर, लट्ठे पर एक कदम रखने का भी साहस न कर सका।
वृद्ध गुरु ने कहा, ’’तुम्हारे पास धनुर्विद्या का कौशल है, किन्तु वह मानसिक कौशल नहीं है जो तीर छोड़ने के लिए प्रेरित करता है।’’
तात्पर्य यह है कि मस्तिष्क को प्रशिक्षित करना शरीर को प्रशिक्षित करने से अधिक महत्वपूर्ण है।
सौजन्य: Timeless Treasures Volume-IV (NTPC द्वारा प्रकाशित कहानी संग्रहों की श्रृंखला)
अनुवाद: घनश्याम मौर्य
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