फिर आ गयी होली. वही केमिकल रंगों की लीपा पोती, वही हुडदंग, वही धक्का मुक्की, धींगा मुश्ती और नशेबाजी, होलिका दहन के नाम पर हरे पेड़ों की अँधा धुंध कटाई, यहाँ तक कि अति उत्साह में दूसरों की निजी संपत्ति को भी स्वाहा कर देने की प्रवृति- कुल मिला कर होली की यही पहचान रह गयी है अब. पिछले दो सालों से मैंने रंग खेलना छोड़ दिया है. कोई घर पर होली मिलने आ भी जाता है तो बस अबीर गुलाल का टीका लगा कर होली मिल लेता हूँ. अब होली खेलने का मन नहीं करता. पहले तो दिन भर खुद को पुतवाओ और दूसरों की लीपा पोती करो उसके बाद मेहनत करो रगड रगड़ कर उस पेंट को छुड़ाने में. देह कि दुर्दशा हुई सो हुई, जीवन-तुल्य जल की बर्बादी सो अलग. हाँ, लीपा पोती का आलम ख़त्म हो जाने के बाद शांति का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, तब होली मिलने ज़रूर निकलता हूँ. अब स्कूल कॉलेज के दिनों वाला होली खेलने का जोश नहीं रहा. यह लाइन पढ़ कर गलत फहमी में न आयें, अभी मैं अधेड़ नहीं हुआ, केवल ३० का ही हूँ. लेकिन शायद अब पहले वाला माहौल नहीं रहा जब होली के बारे में कहा जाता था कि इस दिन तो दुश्मन भी गले मिलते हैं. आज के ज़माने में जब दोस्त भी आँखें फेर लेते हों, तब दुश्मन को गले लगाने की बात बेमानी लगती है.
लेकिन दूसरी ओर सोचता हूँ कि आज के समय में जब आदमी इतना आत्म-केन्द्रित होता जा रहा है कि उसके पास अपने दोस्तों रिश्तेदारों के लिए समय नहीं है, ऐसे में शायद यही त्यौहार बहाना बन जाते हैं एक-दुसरे से मिलने मिलाने का. इन त्योहारों कि स्थापना करने वाले हमारे पूर्वजों का भी शायद यही उद्देश्य था.
खैर, आप सभी को मेरी ओर से होली की तमाम शुभ कामनाएं. रंग खेलिए लेकिन ज़रा संभल कर, किसी को नुक्सान न पहुंचे, खाइए खिलाइए लेकिन होश मत गंवाइये.
1 टिप्पणी:
होली पर बेहतरीन आलेख । निसंदेह इस दिन सभी द्वेष भुलाकर गले मिलना चाहिए।
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