भारत में प्राचीन काल से ही शिक्षा एवं शिक्षण को
पवित्र कार्य माना जाता रहा है। शिक्षा को मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए
परमावश्यक बताया गया है। भारत में गुरु की महत्ता मॉं-बाप से भी बढ़कर बताई गई
है। भारत को विश्वगुरु का भी दर्जा दिया जाता रहा है। जिस समय विश्व के तमाम देश
अज्ञानता की निद्रा में सोये हुए थे, भारत ज्ञान के सागर में गोते लगा रहा था। यह
भारत जैसे महान देश की ही देन है कि यहॉं विश्वविद्यालय की संकल्पना का उदय हुआ।
प्राचीन काल से ही यहां के अनेक नगरों ने शिक्षा केन्द्रों के रूप में प्रसिद्धि
प्राप्त की तथा कालान्तर में विश्वविद्यालयों के रूप में विकसित हुए। यह देखकर
विस्मय होता है कि आज से सैकड़ों साल पहले भारत में ऐसे शिक्षा केन्द्र थे जिनका
स्वरूप आज के आधुनिक विश्वविद्यालयों जैसा ही था। यहॉं पर हम प्राचीन भारत के
कुछ ऐसे ही विश्वविद्यालयों के बारे में जानेंगे जिन्होंने भारत को विश्वगुरू
की पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
तक्षशिला
तक्षशिला के विश्वविद्यालय होने पर कुछ विवाद हैं, जो कि नालन्दा विश्वविद्यालय को लेकर नहीं है जिसका स्वरूप आधुनिक विश्वविद्यालय की तरह ही माना जाता हैं। तक्षशिला वर्तमान समय में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिण्डी जिले की एक तहसील है।पाकिस्तान पुरातत्व विभाग के अनुसार यह स्थल एशिया के बारह प्रमुख पुरातात्विक स्थलों में से एक है। प्राचीन काल में तक्षशिला गांधार देश की राजधानी थी। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, अयोध्या के राजा श्रीरामचंद्र की
विजय के उल्लेख के पश्चात उनके छोटे भाई भरत ने अपने नाना केकयराज अश्वपति के आमंत्रण और उनकी सहायता से
गंधर्वो के देश (गांधार) को जीता और अपने दो पुत्रों को वहाँ का शासक नियुक्त
किया। गंधर्व देश सिंधु नदी के दोनों किनारे, स्थित था|और उसके दोनों ओर भरत के तक्ष और
पुष्कल नामक दोनों पुत्रों ने तक्षशिला और पुष्करावती नामक अपनी-अपनी राजधानियाँ
बसाई। तक्षशिला सिंधु के पूर्वी तट पर थी। कालिदास ने अपने ग्रन्थ 'रघुवंश' में भी इसी तथ्य का
उल्लेख किया है। 'महाभारत' में तक्षशिला का वर्णन परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा विजित नगरी के
रूप में है। यहीं जनमेजय ने प्रसिद्ध सर्पयज्ञ किया था। छठी शती ई॰पू॰ के पूर्व पाणिनि ने अपनी 'अष्टाध्यायी' में भी तक्षशिला का
उल्लेख किया है। बौद्ध साहित्य, विशेष कर जातकों में तक्षशिला का अनेक
बार उल्लेख है।तक्षशिला नगरी हिमालय की सुरम्यवादियों में सिन्धु एंव झेलम नदियों के दोआब
में स्थित थी| यह
ऐतिहासिक नगरी बौद्धकाल में अपनी आर्थिक गतिविधियों के लिए काफी प्रसिध्द थी|
यहाँ 36
प्रकार
की शिल्प उद्योग से सम्बन्धित व्यापारिक गतिविधियाँ
प्रचलित थी| यहाँ के तक्षकार अपनी कला के लिए काफी विख्यात थे| डॉ.
डी. डी. कोशाम्बी के अनुसार तक्षकारों की विथियाँ होने
के कारण ही इस नगर का नाम तक्षशिला पड़ा था|
तक्षशिला के अवशेष: गूगल चित्र से साभार |
1863 ई॰ में जनरल कनिंघम ने तक्षशिला के खंडहरों को खोज
निकाला। तत्पश्चात 1912 से 1929 तक, सर जॉन मार्शल ने इस स्थान पर विस्तृत खुदाई की और प्रचुर तथा
मूल्यवान् सामग्री का उद्घाटन करके इस नगरी के प्राचीन वैभव तथा ऐश्वर्य की झलक इतिहासप्रेमियों के सामने प्रस्तुत की। उत्खनन से तक्षशिला में तीन प्राचीन
नगरों के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं, जिनके वर्तमान नाम भीर का टीला, सिरकप तथा सिरसुख हैं। सबसे पुराना नगर भीर के टीले के
आस्थान पर था। कहा जाता है कि यह पूर्व बुद्ध-कालीन नगर था यहाँ तक्षशिला का
प्रख्यात विश्वविद्यालय स्थित था। सिरकप के चारों ओर परकोटे की दीवार थी। यहाँ के
खंडहरों से अनेक बहुमूल्य रत्न तथा आभूषण प्राप्त हुए। जिनसे इस नगरी के इस भाग की
जो कुषाण राज्यकाल में पूर्व का है, समृद्धि का पता चलता है। सिरसुख जो संभवत: कुषाण राजाओं के समय की तक्षशिला है, एक चौकोर नक्शे पर बना हुआ था। इन तीन नगरों के खंडहरों
के अतिरिक्त, तक्षशिला के
भग्नावशेषों में अनेक बौद्धबिहारों की नष्ट-भ्रष्ट इमारतें और कई स्तूप हैं जिनमें
कुणाल, धर्मरालिक
और भल्लार मुख्य हैं। इनसे बौद्धकाल में, इस नगरी का बौद्धधर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र होना प्रमाणित
होता है। तक्षशिला प्राचीन काल में जैनों की भी तीर्थस्थली थी। पुरातन
प्रबंधसंग्रह नामक ग्रंथ में तक्षशिला के अंतर्गत 105 जैन तीर्थ बताए गए हैं। इसी नगरी को संभवत: तीर्थमाला चैत्यवंदन
में धर्मचक्र कहा गया है।
तक्षशिला विश्वविद्यालय
की स्थापना 700 वर्ष ईसा
पूर्व में की गई थी। ईसा पूर्व 5वीं शती में तक्षशिला मुख्य
शिक्षा केन्द्र बन चुका था। 5वीं शताब्दी की जातक कथाओं में
भी इसका उल्लेख है। तक्षशिला
विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे। यहां 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था।
326 ईस्वी पूर्व में सिकन्दर के आक्रमण के
समय यह संसार का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र ही नहीं था, अपितु उस समय के चिकित्सा शास्त्र का
एकमात्र सर्वोपरि केन्द्र था।
तक्षशिला विश्वविद्यालय का विकास
विभिन्न रूपों में हुआ था। इसका कोई एक केन्द्रीय स्थान नहीं था, अपितु यह विस्तृत भू भाग में फैला हुआ
था। विविध विद्याओं के विद्वान आचार्यो ने यहां अपने विद्यालय तथा आश्रम बना रखे
थे। छात्र रुचि के अनुसार अध्ययन हेतु विभिन्न आचार्यों के पास जाते थे।
महत्वपूर्ण पाठयक्रमों में यहां वेद-वेदान्त, अष्टादश विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्धविद्या, शस्त्र-संचालन, ज्योतिष, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, अश्व-विद्या, मन्त्र-विद्या, विविद्य भाषाएं, शिल्प आदि की शिक्षा विद्यार्थी
प्राप्त करते थे। प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार पाणिनि, पतंजलि, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी
विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। इनमें पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’, पतंजलि
ने ‘योगसूत्र’, तथा
कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ नामक
ग्रन्थों की रचना की। 400 ई. पूर्व में यहाँ के एक और विद्वान
कात्यायन ने ‘वार्तिक’ की रचना की जो
एक प्रकार से ‘डिक्शनरी’ या शब्दकोश था, जो संस्कृत में
प्रयुक्त होनेवाले शब्दों की व्याख्या करता था| कहा जाता है कि मगध
का राजवैध जीवक, मगध नरेश बिम्बिसार के पुत्र अभय द्वारा तक्षशिला
विश्वविद्यालय पहुचाया गया, जहाँ सात वर्षों तक रहकर उसने अपनी जीविका कमाने
के लिए चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन किया तथा अपने युग के महान
चिकित्सक के रूप में प्रसिद्द हुआ, जिसका चिकित्सा
शुल्क 1600 कार्षापण था। एक अन्य वैद्य चरक यहीं का छात्र था, जिसकी औषधियों
पर काफी पकड़ थी।
इस विश्वविद्यालय
को गांधार नरेश आम्भिक का राजकीय संरक्षण प्राप्त था| तक्षशिला विश्वविद्यालय में वेतनभोगी
शिक्षक नहीं थे और न ही कोई निर्दिष्ट पाठयक्रम था। आज कल की तरह पाठयक्रम की अवधि
भी निर्धारित नहीं थी और न कोई विशिष्ट प्रमाणपत्र या उपाधि दी जाती थी। शिष्य की
योग्यता और रुचि देखकर आचार्य उनके लिए अध्ययन की अवधि स्वयं निश्चित करते थे।
परंतु कहीं-कहीं कुछ पाठयक्रमों की समय सीमा निर्धारित थी। बौद्ध साहित्य के अनुसार तक्षशिला धनुर्विद्या एवं चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। चिकित्सा के कुछ
पाठयक्रम सात वर्ष के थे तथा पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद प्रत्येक छात्र को छ: माह
का शोध कार्य करना पड़ता था। इस शोध कार्य में वह कोई औषधि की जड़ी-बूटी पता लगाता
तब जाकर उसे डिग्री मिलती थी। 500 ई. पू. जब संसार में चिकित्सा शास्त्र
की परंपरा भी नहीं थी तब तक्षशिला आयुर्वेद विज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र था। जातक
कथाओं एवं विदेशी पर्यटकों के लेख से पता चलता है कि यहां के स्नातक मस्तिष्क के
भीतर तथा अंतडिय़ों तक का आपरेशन बड़ी सुगमता से कर लेते थे। अनेक असाध्य रोगों के
उपचार सरल एवं सुलभ जड़ी बूटियों से करते थे। इसके अतिरिक्त अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों
का भी उन्हें ज्ञान था। शिष्य आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे। एक
आचार्य के पास अनेक विद्यार्थी रहते थे। इनकी संख्या प्राय: सौ से अधिक होती थी और
अनेक बार 500
तक पहुंच जाती थी। अध्ययन में
क्रियात्मक कार्य को बहुत महत्व दिया जाता था। छात्रों को देशाटन भी कराया जाता
था। शिक्षा पूर्ण होने पर परीक्षा ली जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय से स्नातक
होना उस समय अत्यंत गौरवपूर्ण माना जाता था। यहां धनी तथा निर्धन दोनों तरह के
छात्रों के अध्ययन की व्यवस्था थी। धनी छात्र आचार्य को भोजन, निवास और अध्ययन का शुल्क देते थे तथा
निर्धन छात्र अध्ययन करते हुए आश्रम के कार्य करते थे। शिक्षा पूरी होने पर वे
शुल्क देने की प्रतिज्ञा करते थे। प्राचीन साहित्य से विदित होता है कि तक्षशिला
विश्वविद्यालय में पढऩे वाले अधिकांशत: उच्च वर्ण के ही छात्र होते थे।
यहाँ धर्म एवं दर्शन के साथ-साथ
अर्थशास्त्र,
राजनीतिशास्त्र और सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में 18 प्रकार के शिल्पों के शिक्षा की
व्यवस्था थी जिसमे चिकित्सा विज्ञान काफी उन्नत था। इसके अतिरिक्त, धनुर्विद्या आखेट हस्तिविद्या, पशुभाषा विज्ञान आदि की शिक्षा
की व्यवस्था थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में विद्यार्थी अपने गुरु के साथ रहकर
अध्ययन करते थे। भारत के प्रथम सम्राट मौर्यवंशीय शासक चन्द्रगुप्त ने भी मगध के सिंहासन पर बैठने से
पूर्व चाणक्य के साथ रहकर यहाँ अध्ययन किया था। 16 वर्ष की आयु पूरी करने के बाद ही
इस विश्वविद्यालय में दाखिला मिलाता था। शिक्षा पूर्णतः निःशुल्क थी। लेकिन
शिक्षार्थियों के माता-पिता से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे आचार्यों को आर्थिक सहायता
पहुचाने के लिए कुछ चंदा अवश्य दें, धनी श्रेणीपुत्रों एवं
राजकुमारों के शिक्षण के लिए शुल्क का निर्धारण आवश्य किया गया था। इस कोटि के लोग
प्रवेश के समय ही एकमुश्त शिक्षण शुल्क जमा कर दिया करते थे। जो लोग नकद शुल्क जमा नहीं कर
सकते थे, वे एक खास अवधि तक विश्वविद्यालय
में आचार्य के रूप में स्नातकों को पढ़कर अपने शुल्क की पूर्ति करते थे। मौर्य
साम्राज्य का महामंत्री चाणक्य भी सिकंदर के आक्रमण के समय अपनी शिक्षा पूरी कर
वहां के स्नातकों को शिक्षा देने के लिए ही रुका हुआ था।
तक्षशिला विश्वविद्यालय में परीक्षा
की एक विशिष्ट प्रणाली लागू थी। शिक्षा समाप्ति के बाद छात्रों को विद्वत्मंडली के
समक्ष प्रस्तुत होना पड़ता था,जहाँ उनकी व्यावहारिक एवं मौखिक परीक्षा ली जाती थी, तत्पश्चात उन्हें स्नातक की
उपाधि दी जाती थी। लेकिन यहीं उनकी अंतिम परीक्षा नहीं थी, बल्कि अंतिम निर्णय छात्र को शिक्षा
देनेवाले आचार्य का होता था. उत्तीर्णता के लिए उनकी सहमति आवश्यक थी। यहाँ से उत्तीर्ण
स्नातक इस विश्वविद्यालय के अतिरिक्त पाटलिपुत्र और वाराणसी में आचार्य के रूप में
कार्य करते थे। आचार्यों एवं विद्वानों की परीक्षा के लिए एक विद्वत परिषद्
कार्यरत थी,
जो समय-समय पर संगोष्ठियों,
कार्यशालयों और व्याख्यानमालायों का आयोजन कराती थी; जिसमे देश-विदेश के विद्वत जन
भाग लिया करते थे।
राजकीय संरक्षण प्राप्त होने के बावजूद भी तक्षशिला विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय की तरह पूर्णतः व्यवस्थित नहीं था। यहाँ व्याख्यान देने के लिए बड़े-बड़े हॉल नहीं थे, और न ही कोई पुस्तकालय था।विश्वविद्यालय के सञ्चालन के लिए कोई नियमित आय का स्रोत भी नहीं था। फिर भी यहॉं सिकंदर के आक्रमण के समय दस हजार पांच सौ विद्यार्थी अध्ययन रत थे तथा 60 से अधिक विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
गुप्त
शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय भारत आने वाले चीनी यात्री फाह्यान ने यहाँ कोई शैक्षणिक महत्त्व की बात नहीं प्राप्त हुई
थी। सातवीं शती ई॰ के तृतीय दशक में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी तक्षशिला को
उजड़ा पाया था। उसके लेख के अनुसार उस समय तक्षशिला कश्मीर का एक करद राज्य था। वास्तव में इसकी शिक्षा विषयक
चर्चा मौर्य काल के बाद नहीं सुनी जाती। सम्भवत: बर्बर विदेशियों के
आक्रमणों ने इसे नष्ट कर दिया, संरक्षण देना तो दूर की बात थी। इसके पश्चात तक्षशिला का अगले 1200 वर्षों का इतिहास विस्मृति के अंधकार में विलीन हो जाता
है।
नालन्दा
प्राचीन भारत के विश्वविद्यालयों
में यह सबसे विशाल एवं सबसे गौरवशाली विश्वविद्यालय था। भारत के समस्त प्राचीन
विश्वविद्यालयों में यह पहला ऐसा विश्वविद्यालय था जिसका स्वरूप आज के आधुनिक
विश्वविद्यालयों से मेल खाता है। पश्चिम के पुरातत्ववेत्ताओं ने नालन्दा विश्वविद्यालय
स्थल को सूचना का अगाध कोश बताया है। यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का
सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। इस विश्वविद्यालय की पहचान वर्तमान बिहार राज्य में पटना से लगभग
90 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 12 किलोमीटर उत्तर
में और
वर्तमान बिहार शरीफ से क़रीब 12 किलोमीटर दक्षिण
में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा की
गई थी। इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों को देखकर ही इसके प्राचीन वैभव एवं
गौरव बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।
नालंदा संस्कृत शब्द 'नालम् + दा' से
बना है। संस्कृत में 'नालम' का अर्थ 'कमल' होता है। कमल ज्ञान का प्रतीक है। नालम् + दा यानी कमल देने वाली, ज्ञान देने वाली। सर्वप्रथम यहाँ एक महाविहार की स्थापना की गई और कालान्तर
में इसका नाम 'नालंदा महाविहार' रखा गया जो धीरे-धीरे एक महान विद्यालय के
रूप में परिवर्तित हो गया। वैसे नालन्दा की प्रसिद्धि महात्मा बुद्ध एवं
महावीर स्वामी के समय से ही थी। दीघ निकाय के ब्रह्म जाल सुक्त में महात्मा
बुद्ध के नालन्दा प्रवास का उल्लेख किया गया है। जैन भगवती सूत्र में उल्लेख है
कि महावीर स्वामी ने मक्खलि गोसाल से नालन्दा में भेंट की थी। चीनी यात्री
ह्वेनसांग के वर्णन के अनुसार, लगभग 500 श्रेष्ठियों ने मिलकर 10 करोड़ स्वर्ण
मुद्राओं से नालन्दा क्षेत्र को खरीदकर महात्मा बुद्ध को दान में दिया था। महात्मा
बुद्ध ने नालन्दा के आम्रवन में कई दिन व्यतीत किये और अपने शिष्यों को धर्म की
शिक्षा दी थी। बुद्ध के प्रमुख शिष्य सारिपुत्र की यह जन्मभूमि थी। सारिपुत्र के
समाधि स्थल पर यहॉं सम्राट अशोक ने एक स्तूप का निर्माण भी कराया था। ऐसा प्रतीत
होता है कि यह स्थान अपने प्रारम्भिक समय में ब्राह्मण शिक्षा एवं बौद्ध शिक्षा
दोनों का केन्द्र था किन्तु आगे चल कर यह प्रमुखत: बौद्ध शिक्षा के केन्द्र के
रूप में प्रसिद्ध हुआ। चीनी यात्री फाहियान (405-411
ई0) की भारत यात्रा के समय यह एक बौद्ध विहार था और इस समय तक इसने विश्वविद्यालय
का रूप ग्रहण नहीं किया था। इस स्थान की प्रसिद्धि पांचवीं सदी के मध्य में उस
समय और बढ़ गयी जब बौद्ध विद्वान दिड्.गनाग ने नालन्दा जाकर वहॉं के ब्राह्मण
पण्डित सुदुर्गम को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
यद्यपि
नालन्दा महाविहार की स्थापना गुप्त वंश से बहुत पहले हो चुकी थी, परन्तु एक
विश्वविद्यालय के रूप में इसके विकास का श्रेय गुप्तवंशीय शासक कुमारगुप्त प्रथम (415-455
ई0) को प्राप्त है। गुप्त शासकों में सर्वप्रथम उसी ने नालन्दा
महाविहार को विश्वविद्यालय के रूप में विकसित करने हेतु बौद्ध संघ को दान दिया
था। इस विश्वविद्यालय को कुमारगुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। कुमारगुप्त
के पौत्र बुधगुप्त ने इस महाविहार के दक्षिण की ओर एक विहार बनवाया एवं तथागतगुप्त
ने बुधगुप्त द्वारा बनवाये गये विहार के पूर्व में एक विहार निर्मित करवाया। नरसिंह
बालादित्य तथा अन्य गुप्त शासकों ने विश्वविद्यालय परिसर में विभिन्न निर्माण
एवं विस्तार कार्य किये। ह्वेनसांग के अनुसार गुप्त
सम्राट नरसिंहगुप्त बालादित्य ने नालन्दा में एक 300
फीट ऊँचा सुन्दर मन्दिर निर्मित करवाया। इस मन्दिर से लगभग 200 फीट
दूर पूर्व की ओर पूर्णवर्मा द्वारा बनवाया गया छ: तल का मन्दिर था जिसमें 80 फुट ऊंची तांबे की बुद्ध
प्रतिमा स्थापित थी। सम्राट वज्र ने बालादित्य विहार के पश्चिम में
एक विहार बनवाया था। गुप्तवंश के पतन
के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे
महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। पाल
शासकों के अभिलेखों में इसे ‘नालन्दा महाविहाराय आर्य भिक्षुस्य’
कहा गया है। पाल शासक देवपाल (810-850 ई0) के समय में इसे अन्तर्राष्ट्रीय पहचान
मिली। देवपाल के मुद्दगिरि ताम्रपत्र में उल्लेख है कि सुमात्रा के बेलपुत्र देव
के आग्रह करने पर इनके द्वारा निर्मित कराये गये विहार की व्यवस्था के लिए
देवपाल ने पॉंच गांव दान में दिये। स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों
के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला
था। इस
विश्वविद्यालय को गुप्त तथा मौखरी नरेशों तथा 'कान्यकुब्जाधिप' हर्षवर्द्धन से निरंतर
अर्थ सहायता और संरक्षण प्राप्त होता रहा। सम्राट हर्षवर्द्धन ने इस विश्वविद्यालय
के परिसर में छठे विहार का निर्माण कराया और परिसर के चारों ओर 9 फीट ऊँची दीवार
निर्मित करायी।
नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष: गूगल चित्र से साभार |
नालन्दा विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों का वृहद दृश्य: गूगल चित्र से साभार |
इस विश्वविद्यालय के
अवशेष चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले हैं। अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत
क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था।
खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था। इसका पूरा परिसर
एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। यह परिसर
दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है। मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में उत्तर
से दक्षिण की ओर व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे। यहां
का सबसे बड़ा मठ या विहार 203 फीट लम्बा और 164 फीट चौड़ा था। इसके कक्षों की लम्बाई
9 से 12 फीट तक थी। यशोवर्मा के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि नालन्दा के
विहारों की शिखर श्रेणियां गगनस्थ मेघों का चुम्बन करती थीं। अभी तक खुदाई में केवल
तेरह मठ मिले हैं किन्तु
इससे अधिक मठों के
होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर
की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक
मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। विद्यालय के समीप दस स्नानागार
बने हुए थे। प्रात:काल स्नान का समय निर्धारित था और स्नान के समय घंटा बजता था।
मंदिरों में बुद्ध
भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-1 थी।
आज भी यहां दो मंजिला इमारत शेष है जो परिसर के मुख्य आंगन के
समीप स्थित है। संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को
संबोधित किया करते थे। इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित
अवस्था में बचा हुआ है। इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा बनी है।
यहां स्थित मंदिर नं. 3 इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है। इस मंदिर से समूचे
क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा
हुआ है। इन सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी
हुई है। नालन्दा विश्वविद्यालय के उत्खनन के पश्चात् ही उसकी विशालता और भव्यता का वास्तविक ज्ञान हो सका है। यहाँ के भवन विशाल, भव्य और सुंदर थे। कलात्मकता तो इनमें भरी
पड़ी थी। जैन ग्रंथ 'सूत्रकृतांग' में नालंदा के 'हस्तियान' नामक सुंदर उद्यान
का वर्णन है। इसके अतिरिक्त यहाँ तांबे एवं पीतल की बुद्ध की
मूर्तियों के प्रमाण भी मिलते हैं।
केन्द्रीय विद्यालय में
सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते
थे। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा
अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा जलाशय
थे जिनमें कमल तैरते रहते थे।
यह विश्व का प्रथम
पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। पूर्ण विकसित स्थिति में यहां
विद्यार्थियों की
संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या तकरीबन
2,000 थी। चीनी यात्री इत्सिंग के भारत आगमन के समय यहां 3000
विद्यार्थी थे। सातवीं शती में जब ह्वेनसांग भारत
आया था उस समय 10,000 विद्यार्थी और 1,510 आचार्य नालंदा
विश्वविद्यालय में थे। यहां का एक अध्यापक लगभग 9 या 10 छात्रों
को पढ़ाता था। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, श्रीलंका, इण्डोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा
ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म
का प्रचार करते थे। विदेशी
यात्रियों के वर्णन के अनुसार नालन्दा विश्वविद्यालय में छात्रों के रहने की उत्तम
व्यवस्था थी। उल्लेख मिलता है कि यहाँ छात्रों के
रहने के लिए आठ शालाएं और 300 कमरे थे जिनमें अकेले या एक से अधिक
छात्रों के रहने की व्यवस्था थी। एक या दो भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे। कमरे
छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे। कई खंडों
में विद्यालय तथा छात्रावास थे। प्रत्येक खंड में छात्रों के स्नान के लिए सुंदर तरणताल निर्मित किये गये थे जिनमें नीचे से ऊपर जल लाने का
प्रबंध था। शयनस्थान पत्थरों के बने थे। छात्रावास में जल की आवश्यकता को पूरा
करने के लिए कुऍं बने हुए थे।
यहां छात्रों का अपना
संघ था। वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न
मामलों जैसे छात्रावासों का प्रबंध आदि करता था। छात्रों को किसी प्रकार
की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और
उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में दिये
गये थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।
समस्त विश्वविद्यालय का
प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।
कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति
शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय
की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में
मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख-रेख यही समिति करती थी। इसी से
सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था। सातवीं सदी में ह्वेनसांग के भारत आगमन के समय बौद्ध विद्वान शीलभद्र इस विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उनके पूर्व धर्मपाल इस
संस्था के कुलपति थे।
इस विश्वविद्यालय में
तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय
श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र,जिनमित्र, दिड्.गनाग, ज्ञानचन्द्र, नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग, धर्मकीर्ति आदि थे। शीलभद्र ने ‘आर्य
बुद्ध भूमि बुद्ध व्याख्यान’ नामक ग्रन्थ की रचना की। धर्मपाल ने ‘वर्ण
सूत्र वृत्तिनाम’
नामक संस्कृत व्याकरण की टीका लिखी। इसके अतिरिक्त शांतरक्षित ने ‘तत्वसंग्रह’
और पद्मसम्भव ने ‘समय
पज्यशिका’
नामक ग्रन्थों की रचना की। नागार्जुन ने यहीं पर प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान
राहुलभद्र का शिष्यत्व स्वीकार कर विभिन्न शास्त्रों और विद्याओं का अध्ययन
किया था। कुछ समय तक असंग भी यहां के आचार्य रहे थे। एक प्राचीन श्लोक से
ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध भारतीय
गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट्ट भी इस विश्वविद्यालय के
प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है। वे हैं: दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। ज्ञाता बताते
हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ 'आर्यभट्ट सिद्धान्त' भी था, जिसके आज मात्र 34
श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का सातवीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।
नालन्दा विश्वविद्यालय
मुख्य रूप से महायान बौद्ध धर्म का शिक्षा केन्द्र था किन्तु यहां हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही
अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं
शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी
यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों
से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
प्रसिद्ध चीनी यात्री
ह्वेनसांग ने सातवीं सदी में यहाँ नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध दर्शन, धर्म और साहित्य का
अध्ययन किया था। उसने योगशास्त्र का भी अध्ययन किया था। इन्होंने अपने
यात्रा वृत्तांत व संस्मरणों में नालंदा के विषय में काफी कुछ लिखा है। ह्वेनसांग द्वारा
रचित ग्रन्थ ‘सी-यू-की’
का अंग्रेजी में अनुवाद ब्रिटिश विद्वान सैमुअल बील द्वारा किया गया है। ह्वेनसांग ने लिखा है कि सहस्रों
छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया था। इस
विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके
अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर
पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था। ह्वेनसांग के
अनुसार, विश्वद्यालय में
प्रतिदिन 100 व्याख्यान दिये जाते थे। उसके अनुसार इस
विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना सरल नहीं था। यहाँ केवल उच्च शिक्षा प्राप्त करने
वाले छात्र ही प्रवेश पा सकते थे। प्रवेश के लिए पहले छात्र को मौखिक
परीक्षा देनी होती
थी। इसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रवेश संभव था। विश्वविद्यालय के छ: द्वार थे।
प्रत्येक द्वार पर एक द्वार पण्डित होता था। प्रवेश से पहले वो छात्रों की वहीं
परीक्षा लेता था। ह्वेनसांग के समय इस परीक्षा में विदेश
से आने वाले छात्रों में केवल 20 प्रतिशत छात्र जबकि
भारतीय छात्रों में से केवल 30 प्रतिशत छात्र ही उत्तीर्ण हो पाते थे।
विश्वद्यालय में प्रवेश हेतु वर्ण, धर्म अथवा राष्ट्रीयता के आधार पर कोई
भेदभाव नहीं किया जाता था। विश्वविद्यालय में न्यूनतम बीस वर्ष के छात्र ही
प्रवेश पा सकते थे। विश्वविद्यालय में प्रवेश के बाद भी छात्रों को कठोर परिश्रम
करना पड़ता था तथा अनेक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। यहाँ से स्नातक
करने वाले छात्र का हर जगह सम्मान होता था।
चीनी विद्वान इत्सिंग ने (675-685
ई0) भी भारत में आकर नालन्दा विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की थी। इत्सिंग ने
400 संस्कृत पुस्तकों की प्रतिलिपियां तैयार की थीं जिनमें लगभग 3 लाख श्लोक
थे। उसने नालन्दा के बारे में अधिक विस्तार
से लिखा है जिससे इस विश्वविद्यालय के बारे में हमें और जानकारी प्राप्त होती
है। इत्सिंग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय में
भिक्षुओं के स्नान, ध्यान, भोजन, शयन तथा टहलने के निर्धारित नियम थे और प्रत्येक
कार्य का निर्धारित समय था। इत्सिंग ने विश्वविद्यालय में लागू किये गये स्वास्थ्य
एवं चिकित्सा संबंधी सिद्धान्तों और नियमों का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है।
नालन्दा
विश्वविद्यालय में पाली भाषा का अध्ययन अनिवार्य था। यहाँ महायान के प्रवर्तक
नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार
अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा
चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा की खुदाई में मिली
अनेक काँसे की मूर्तियो के आधार पर कुछ
विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन
होता था। यहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष
विभाग था। नालंदा के विद्यार्थियों के द्वारा ही एशिया में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विस्तृत प्रचार व प्रसार हुआ था। यहाँ
के विद्यार्थियों और विद्वानों की मांग एशिया के सभी देशों में थी और उनका सर्वत्र आदर होता था। तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर भदंत
शांतिरक्षित और पद्मसंभव तिब्बत गए थे और वहाँ उन्होंने संस्कृत, बौद्ध साहित्य और भारतीय संस्कृति का प्रचार किया था। नालंदा में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त
हेतुविद्या, शब्दविद्या, चिकित्सा शास्त्र, अथर्ववेद तथा सांख्य से संबधित विषय भी पढ़ाए जाते
थे।ह्वेनसांग ने लिखा था कि नालंदा के एक सहस्त्र विद्वान
आचार्यों में से सौ ऐसे थे जो सूत्र और शास्त्र जानते थे, पांच सौ विद्वान ऐसे थे जो 3 विषयों में पारंगत थे और बीस विद्वान ऐसे थे जो 50 विषयों में निपुण थे। केवल शीलभद्र ही ऐसे थे जिनकी सभी
विषयों में समान गति थी।
नालंदा में सहस्रों
विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, ‘धर्मगृह’ नामक नौ तल का एक विराट
पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह पुस्तकालय 'रत्नरंजक', 'रत्नोदधि' एवं
'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में विभाजित था। इन भवनों की
ऊँचाई का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग ने लिखा है कि 'इनकी सतमंजिली
अटारियों के शिखर बादलों से भी अधिक ऊँचे थे और इन पर प्रातःकाल की हिम जम जाया
करती थी। इनके झरोखों में से सूर्य का सतरंगा प्रकाश अन्दर आकर वातावरण को सुंदर
एवं आकर्षक बनाता था। इन पुस्तकालयों में सहस्त्रों हस्तलिखित गंथ थे।' इनमें से अनेकों
की प्रतिलिपियां ह्वेनसांग ने की थी। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में
अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ
चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।
नालंदा 7वीं शती में तथा
उसके पश्चात कई सौ वर्षों तक एशिया का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय था। इस विश्वविद्यालय को
बारहवीं शताब्दी
तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी। १३ वीं सदी तक इस
विश्वविद्यालय का पूर्णतः अवसान हो गया। मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज़ुद्दीन
सिराज और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के वृत्तांतों से पता चलता है कि इस
विश्वविद्यालय को तुर्कों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुँची। तारानाथ के अनुसार
तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी
नुकसान पहुँचा। इस पर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल द्वारा किया गया। 1193 ई0 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी जो
कि दिल्ली के सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनानायक के तौर पर बंगाल विजय पर
निकला था, ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया। इतिहासकार
मिनहाजुद्दीन सिराज ने अपनी पुस्तक ‘तबकते नासिरी’
में लिखा है कि हजारों बौद्ध भिक्षुओं को जीवित ही जला दिया गया और हजारों बौद्ध
भिक्षुओं के शीश काट दिये गये। उसके अनुसार नालन्दा पुस्तकालय में इतनी पुस्तकें
थीं कि छह महीने तक वे पुस्तकें जलती रहीं और इनसे उठता धुऑं आस-पास की पहाडियों
पर कई महीनों तक बादलों की भांति मंडराता रहा। कहा जाता है कि विश्वविद्यालय
में उस समय आग लगाई गई जब बौद्ध भिक्षुओं
के भोजन करने का समय था। पुरातात्विक अवशेषों से इस बात की पुष्टि होती है जिनसे
पता चलता है कि भयाक्रान्त बौद्ध भिक्षुओं द्वारा भोजन अपने स्थान पर ही छोड़
दिया गया था। धान्यगृह में जले हुए चावल के अवशेष भी इस बात की पुष्टि करते हैं। मुसलमानों ने यहाँ
की सतमंजिली भव्य इमारतों और सुंदर भवनों को नष्ट-भ्रष्ट करके खंडहर बना दिया। इस प्रकार
भारतीय विद्या, संस्कृति और सभ्यता के घर नालंदा
को एक ही आक्रमण के झटके ने
धूल में मिला दिया। कुछ
इतिहासकारों का मत है कि विश्वविद्यालय के चारदीवारी से घिरे होने के कारण
आक्रमणकारियों ने सम्भवत: इन्हें दुर्ग समझ लिया होगा, जबकि कुछ लोगों का मानना
है कि सिर घुटाये हुए बौद्ध विद्वानों को उन्होंने मूर्तिपूजक ब्राम्हण समझ कर
उनकी हत्या की होगी। ऐसा माना जाता है कि विश्वविद्यालय की संकल्पना मुस्लिम ही
भारत से पश्चिम में ले गये और उसके बाद ही पश्चिमी जगत में विश्वविद्यालयों की स्थापना
हुई।
नालन्दा
विश्वविद्यालय की खुदाई में मिले अवशेष भारतीय सरकार द्वारा एक संग्रहालय में
सुरक्षित रखे गये हैं। 19-11-1958 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र
प्रसाद ने मूल विश्वविद्यालय के स्थल के समीप ही ‘नव नालन्दा विहार’
का उद्घाटन किया। त्रिपिटिक के ज्ञाता विद्वान जगदीश कश्यप को इस संस्था का
प्रमुख नियुक्ति किया गया था।
नालंदा शिक्षा और
ज्ञान-विज्ञान का प्रचीनतम केंद्र रहा है तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नालंदा पुरावशेष को प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल और पुरावशेष अधिनियम १९५८ के तहत संरक्षित
स्थल घोषित किया है। इस स्थान की मूल सामग्रियों से ही इसकी मरम्मत कराई गई है। यह
पूरा प्रयास किया गया है कि नालन्दा विश्वविद्यालय का मूल रूप ना बदले।
वर्ष 2010 में एक विधेयक
के द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय के नाम पर एक नए विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी
है। यह स्नातकोत्तर तथा डॉक्टरेट स्तर का विश्वविद्यालय
होगा। प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार अमर्त्य सेन इसका प्रथम कुलपति नियुक्त किया गया। राजगीर के निकट एक अस्थायी परिसर
में शुरू किये गये इस विश्वविद्यालय में वर्ष 2014 से
शैक्षणिक सत्र भी
आरंभ हो चुका है। वर्ष 2020 तक इसके स्थायी कैम्पस
के पूर्ण रूप से निर्मित हो जाने का अनुमान है। इसके पुनर्जीवन प्रयास
में सिंगापुर, चीन, जापान व दक्षिण-कोरिया ने भी सहयोग देने का वादा किया
है। इसमें ईस्ट एशिया सम्मेलन के १६ देश आर्थिक सहयोग देंगे।
विक्रमशिला
पूर्व मध्य
युग के शिक्षा केन्द्रों में इस विश्वविद्यालय की सर्वाधिक ख्याति थी। 8वीं शताब्दी में पाल वंश के शासक
धर्मपाल (770-810 ई0) द्वारा बिहार प्रान्त के भागलपुर से लगभग 25 मील दूरी पर विक्रमशिला
विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। इस महाविहार के सम्बन्ध में कहा जाता है कि ‘विक्रम’ का अर्थ मज़बूत, शक्तिशाली और ‘शील’ का अर्थ
चरित्र से सम्बन्धित है। कुछ लोगों का विश्वास है कि धर्मपाल का नाम ‘विक्रमशील’ भी था और
उसने अपने इसी नाम पर इस विश्वविद्यालय की स्थापना की। तिब्बती स्त्रोतों के
अनुसार यहाँ विक्रम नामक एक यक्ष को पराजित किया गया था इसलिए इसे विक्रमशिला कहा
जाता है। ऐसा समझा जाता है कि नालन्दा विश्वविद्यालय की कान्ति मद्धिम पड़
जाने पर एक विकल्प के रूप में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। इस विश्वविद्यालय ने
अपनी स्थापना के तुरन्त बाद ही अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त कर लिया था। यह प्रायः
चार सौ वर्षों तक नालन्दा विश्वविद्यालय का समकालीन था।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के अवशेष: गूगल चित्र से साभार |
विद्वानों का
मत है कि इस विश्वविद्यालय की स्थिति भागलपुर नगर से लगभग 25 मील दूर कोलगाँव
(कहलगॉंव) रेल स्टेशन के समीप अन्तीचक गॉंव में थी। कोलगाँव से तीन मील पूर्व
गंगा नदी के तट पर 'बटेश्वरनाथ का टीला' नामक स्थान है, जहाँ पर अनेक
प्राचीन खण्डहर पड़े हुए हैं। इनसे अनेक मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं, जिनसे इस स्थान की
प्राचीनता सिद्ध होती है। विक्रमशिला के बारे में सबसे पहले प्रसिद्ध साहित्यकार
राहुल सांस्कृत्यायन ने सुल्तानगंज के निकट होने का अनुमान किया था। उसका मुख्य
कारण था कि अंग्रेजों के जमाने में सुल्तानगंज के निकट एक गांव में बुद्ध की
प्रतिमा मिली थी। किन्तु अंग्रेजों ने विक्रमशिला के बारे में पता लगाने का
प्रयास नहीं किया। इसकी खुदाई का कार्य सर्वप्रथम पटना विश्वविद्यालय के प्रो0
बी0पी सिन्हा के नेतृत्व में 1960-69 ई0 में हुआ। इसके बाद भारतीय पुरातत्व
विभाग द्वारा डॉ॰ बी एस वर्मा के नेतृत्व में 1972 से 1982 के बीच मुख्य स्तूप
तथा संघाराम के मेहराबदार कमरे और मुख्य-स्थल के बाहर के मंदिरों की विस्तृत खुदाई
का का कार्य किया गया। खुदाई-स्थल में नीचे उतरते ही तिब्बती धर्मशाला के अवशेष
दृष्टिगोचर होते हैं। लगभग 60 फीट लंबे –चौड़े एक चबूतरे पर
स्थित इस खंडहर की दीवारों और पक्की ईंटों के पाए क्षतिग्रस्त अवस्था में हैं। इस
खुदाई से तिब्बती विद्वानों द्वारा वर्णित केन्द्रीय चैत्य की पुष्टि हो चुकी है
तथा महाविहार के प्रायः सभी भवनों का प्रकाश में आना निश्चित हो गया है। यहाँ 50
फीट ऊँचे और 75 फीट चौड़े भवन के रूप में एक केन्द्रीय चैत्य था। यहां भूमि–स्पर्श मुद्रा
में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई है। पूर्वी और पश्चिमी भवन में पद्मासन पर
बैठे अवलोकितेश्वर की कांस्य-प्रतिमा प्राप्त हुई है। यहाँ अवस्थित स्तूप को देखने
से ऐसा मालूम होता है कि कक्षाओं में प्रवेश के लिए यही मुख्य मंडप है। इसकी
दीवारों मे चारों ओर टेराकोटा ईंटें लगी हैं जो जीर्ण अवस्था में हैं।
स्तूप के चारों ओर लगी हुई टेराकोटा की
मूर्तियों में बौद्ध धर्म और सनातन धर्म से सम्बन्धित चित्र दर्शाये गये हैं।
खुदाई के दौरान चतुष्कोणीय आकार का मठ प्रकट हुआ है। यह 330 वर्गमीटर में फैला है।
इसमें 28 कमरे हैं तथा 12 भूगर्भ कोष्ठ बने हुए हैं। इतिहासकारों का मानना है कि इसका
प्रयोग चिंतन-कार्य के लिए किया जाता था। केन्द्रीय चैत्य के केन्द्र के चारों ओर
विपरीत दिशा के आराधना-गृह में दो प्रदक्षिणा-पथों का निर्माण किया गया है। इसके अलावा खुदाई में यहाँ
तंत्र-साधना की गुफाएं भी प्रकाश में आए हैं और वहाँ महाविहार-अंकित एक मुद्रा भी प्राप्त हुई है।
महाविहार के प्रांगण में अब तक दर्जनों
प्रकोष्ठों को प्रकाश में लाया जा चुका है। कई जगहों से ईंट निर्मित मेहराबदार
कमरों की भी खुदाई की गई है। इन कमरों का उपयोग संभवतः योग साधना के लिए
किया जाता था। मुख्य प्रवेश-द्वार के अहाते में दोनों ओर से खुलने वाले
चार-चार कमरों की श्रृंखला पाई गई है। यहाँ प्रथम चरण में चार सीढ़ियों की संरचना, फिर तीन
सीढ़ियाँ, उसके बाद दो सीढ़ियाँ और दो मीटर के अंतराल पर अंततः एक सीढ़ी की कलापूर्ण
बनावट मिलती है। तिब्बती-स्रोतों के अनुसार यह महाविहार एक विशाल चारदीवारी से
घिरा हुआ था और मध्य में महोबोधि का एक विशाल मंदिर बना था। महाविहार प्राँगण के
एक भाग में मन्नत स्तूपों की कई शृंखलाएँ पाई गई हैं। इनमें कुछ छोटे तो कुछ मध्यम
आकार वाले हैं। एक अनुमान के अनुसार, यहाँ पर लगभग 160 विहार थे, जिनमें अनेक विशाल
प्रकोष्ठ बने हुए थे। महाविहार के केन्द्र में एक व्याख्यान कक्ष था जिसे
विद्यागृह कहा जाता था।
नालन्दा
का संरक्षित क्षेत्र 80 एकड़ में फैला है, जबकि विक्रमशिला सौ
एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है लेकिन छात्रों, शिक्षकों, मठ और
मन्दिरों की संख्या में नालन्दा विश्वविद्यालय विक्रमशिला से बड़ा था। नालन्दा विश्वविद्यालय
में 325 कमरे और 6 मन्दिर थे, जबकि विक्रमशिला में 208 कमरे और 4 मन्दिर थे। विक्रमशिला
विश्वविद्यालय को विश्व का दूसरा आवासीय विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है।
यह विश्वविद्यालय राजकीय महाविहार के रूप में प्रतिष्ठित था। नालन्दा की भाँति
विक्रमशिला विश्वविद्यालय भी बौद्ध संसार में सर्वत्र सम्मान की दृष्टि से देखा
जाता था। बौद्ध ग्रन्थों से यह भी उल्लेख मिलता है गौतम बुद्ध स्वयं यहाँ
आए थे और यही से गंगा नदी पार कर सहरसा की ओर गए थे।
तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ की
प्रसिद्ध पुस्तक ‘बौद्धधर्म का इतिहास’ के अनुसार दसवीं
शताब्दी आते आते विक्रमशिला नालन्दा विश्वविद्यालय से भी वृहत शिक्षा केन्द्र बन
गया था। इसके संस्थापक पाल शासक धर्मपाल ने अध्ययन के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए
108 विद्वान विभागाध्यक्ष और 108 आचार्यों की नियुक्ति की थी। विश्वविद्यालय के
सभा भवन में एक साथ 8,000 विद्यार्थी तथा विद्वान बैठक कर धर्म-प्रवचन सुनते थे।
लामा सुम्पा के अनुसार, इसकी चारदीवारी के चतुर्दिक 107 देव-स्थानों की योजना थी
और उसके अन्दर 58 संस्थाएँ थीं, जिनमें 108 पंडित रहा करते थे। कुछ अन्य
स्रोतों के अनुसार, यहाँ के अध्यापकों की कुल संख्या 3,000 के लगभग थी। छात्रों की संख्या के विषय
में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। 12वीं शताब्दी में यहाँ 3,000 छात्रों के होने का विवरण
प्राप्त होता है। लेकिन यहाँ के सभागार के जो खण्डहर मिले हैं उनसे पता चलता है कि
सभागार में 8,000 व्यक्तियों को बिठाने की व्यवस्था थी। विदेशी छात्रों में तिब्वती
छात्रों की संख्या सर्वाधिक थी। इसीलिए एक छात्रावास केवल तिब्बती छात्रों के लिए
ही था।
इतिहासकार
सुकुमार दत्त के अनुसार, विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षकों का जैसा सुस्पष्ट
पदक्रम स्थापित था, वैसा अन्य किसी महाविहार या विश्वविद्यालय में नहीं मिलता।
यह पदक्रम निम्न प्रकार था-
1. अध्यक्ष
2. द्वारपण्डित (छह द्वारों के लिए छह पृथक
द्वारपण्डित थे)
3. महापण्डित
4. पण्डित (संख्या में 108)
5. उपाध्याय अथवा आचार्य (पण्डितों की संख्या
को मिलाकर लगभग 160)
6. भिक्षु (संख्या में लगभग 1,000)
इतिहासकार
पंचानन मिश्र का कहना है कि नालन्दा विश्वविद्यालय में एक द्वार का पता चला है
जबकि विक्रमशिला में छह द्वार थे। द्वारों की संख्या छह होने का तात्पर्य है कि
यहाँ पर छह विषयों की पढ़ाई होती थी। कुछ विद्वानों का मत है कि ये छह द्वार विश्वविद्यालय
के छह विहारों के थे। तिब्बती लेखक लामा तारानाथ के अनुसार इस विश्वविद्यालय में
छह प्रवेश द्वार थे, जो विषयों के प्रकांड विद्वान आचार्यों द्वारा
रक्षित थे। वे आचार्य द्वार-पंडित कहे जाते थे। इस महाविहार में प्रवेश पाने के
लिए विद्यार्थी को पहले प्रत्येक द्वार-पंडित से शास्त्रार्थ करना पड़ता था और जो
इसमें उत्तीर्ण होता था वही इस महाविहार में प्रवेश पाने का अधिकारी होता था।
प्रवेशार्थियों की योग्यता, चरित्र और धारणा या बुद्धि की परीक्षा के लिए
दस आचार्यों की नियुक्ति की गई थी। नालंदा-विश्वविद्यालय की तरह यहाँ की भी प्रवेश
परीक्षा बड़ी कठिन थी। दस प्रवेशार्थियों में दो या तीन को ही प्रवेश मिल पाता था।
तारानाथ के अनुसार, दसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में पूर्वी द्वार पर रत्नाकार
शांति, पश्चिमी द्वार पर वागीश्वर कीर्ति, उत्तरी द्वार पर नारोप, दक्षिणी द्वार
पर प्रज्ञाकरमति, प्रथम केन्द्रीय द्वार पर कश्मीर के रत्नवज्र और द्वितीय
केन्द्रीय द्वार पर गौड़ देश के ज्ञानश्री मित्र थे।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के प्रख्यात
विद्वानों की एक लम्बी सूची है। इस विश्वविद्यालय से सम्बद्ध विद्धानों में 'रक्षित', 'विरोचन', 'ज्ञानपद', बुद्ध, 'जेतारि', 'रत्नाकर', 'शान्ति', 'ज्ञानश्री', 'मित्र', 'रत्नवज्र' एवं 'अभयंकर' के नाम प्रसिद्ध है। इनकी
रचनायें बौद्ध साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस विश्वविद्यालय के
सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु दीपंकर श्रीज्ञान ‘अतीश' ने लगभग 200 ग्रंथों की रचना की। ये ओदंतपुरी के
विद्यालय के छात्र थे और विक्रमशिला के आचार्य। 11वीं शती में तिब्बत
के राजा के निमंत्रण पर ये वहाँ पर गए थे। तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार
में इनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता है। उन्हें तिब्बत में
इतना सम्मान मिला कि वे अतिशदेव के तुल्य पूज्य हो गए। तिब्बत में उन्हें
मंजुश्री का अवतार माना जाता है और मठों में उनकी पूजा की जाती है। तिब्बत के साथ इस शिक्षा
केन्द्र का प्रारम्भ से ही विशेष सम्बंध रहा है। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में
विद्याध्ययन के लिए आने वाले तिब्बत के विद्वानों के लिए अलग से एक अतिथिशाला थी।
विक्रमशिला से अनेक विद्वान तिब्बत गए थे तथा वहाँ उन्होंने कई ग्रन्थों का
तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। यही कारण है कि विक्रमशिला-महाविहार
से जुड़े अधिकांश साक्ष्य तिब्बती-ग्रंथों में मिलते हैं।
यहाँ
भी नालन्दा की तरह सुदूर देशों जैसे – जापान, चीन, तिब्बत, कोरिया, थाईलैंड, भूटान, नेपाल आदि के
विद्यार्थी शिक्षा-ग्रहण करने के लिए आया करते थे। नए विद्यार्थी सबसे पहले एक
भिक्षु के पास शिक्षा पाने के लिए जाते थे। बाद में उन्हें उच्च शिक्षा के लिए
ऊँचे स्तर के पंडित के अधीन रहकर ज्ञान प्राप्त करना होता था। विद्यार्थी को
शिक्षकों के अधीन सारे कार्य करने पड़ते थे। छात्रों को वाद-विवाद और तर्क द्वारा
भी शिक्षा दी जाती थी जिसमें शिक्षक एवं छात्र स्वच्छन्द रूप से भाग लेते थे। यहाँ
के शिक्षक किसी एक विषय पर ही नहीं बल्कि सभी विषयों पर तर्क करते थे। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थीं तथा उनकी जिज्ञासाओं का समाधान विद्वान आचार्यों द्वारा किया जाता था।
उत्खनन में एक ग्रंथागार का अवशेष भी
मिला है जिसे देखने से प्रतीत होता है कि यह ग्रंथागार कभी काफी समृद्ध रहा होगा।
भोजपत्र एवं तालपत्र-ग्रंथों को जलवायु तथा मौसमी क्षरण से बचाने के लिए ग्रंथागार
में शीतोष्ण व्यवस्था थी। ग्रंथागार की दो दीवारों के बीच पानी बहने की व्यवस्था
थी। सम्भवत: कक्ष के तापमान को हमेशा सामान्य बनाए रखने के लिए ऐसा किया गया था। यहां
बौद्ध पांडुलिपियों का अच्छा संग्रह था। महाविहार में आधुनिक शैक्षणिक परिषद के
समान एक समिति थी जो पुस्तकालयों के कार्यों की देख-रेख करती थी। विदेशों से आए
बौद्ध भिक्षु अपने अध्ययन काल से कुछ समय निकाल कर यहाँ की दुर्लभ व अच्छी-अच्छी
पुस्तकों का अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद कर अपने देश ले जाते थे। इस कार्य में
उन्हें अधिक-से-अधिक सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं। पाल शासक गोपाल द्वितीय के समय
में यहाँ से प्राप्त की गई ‘प्रज्ञापारमिता’ की पाँडुलिपि अभी भी
ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित है। तिब्बती पाँडुलिपियों से यह ज्ञात होता है कि
विक्रमशिला-महाविहार में बहुत बड़े-बड़े विद्वान आचार्य के पद पर थे। उनकी लिखी हुई
अनेक पुस्तकें थीं।
विद्यार्थियों को भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा आदि की
व्यवस्था नि:शुल्क दी जाती थी। विश्वविद्यालय का खर्च पाल-राजाओं द्वारा दिए गए
जागीरों से होता था। इस महाविहार में दो तरह के विद्यार्थी होते थे। पहले वे
विद्यार्थी जो शिक्षा प्राप्त करके बौद्ध-धर्म के प्रचार में ही अपना समस्त जीवन
गुज़ारते थे। दूसरे वे विद्यार्थी, जिनका उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना और
ग्रहस्थ जीवन गुज़ारना था। ऐसे विद्यार्थियों को महाविहार के आर्थिक संकट की स्थिति
में या अपने निर्वाह के लिए कुछ धन की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी। ऐसे धन का
प्रबन्ध वे भिक्षाटन द्वारा या उच्चवर्ग के विद्यार्थी अपने घर से इसकी पूर्ति
करते थे। शिक्षकों और विद्वानों को अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ के
आयोजन में भाग लेना पड़ता था। इस प्रकार के शास्त्रार्थ का समय पहले से निश्चित
रहता था, जिसमें शिक्षक, विद्यार्थीगण तथा समस्त विद्वान भाग लेते थे और
अपने ज्ञान की वृद्धि करते थे। ऐसी सभा की अध्यक्षता राजा स्वयं करता था।
सफल छात्रों की योग्यता की घोषणा सत्तारूढ़ शासक के द्वारा दीक्षांत
समारोह में की जाती थी। यह परम्परा विक्रमशिला में ही पहली बार लागू हुई थी। उच्चकोटि की
शिक्षा प्राप्त करके विक्रमशिला के विद्यार्थी ‘पंडित’ और ‘महापंडित’ की उपाधि
धारण करते थे। यह डिग्री या उपाधि सत्तारूढ़ राजा द्वारा विद्यार्थियों को दी
जाती थी। ये उपाधियाँ विक्रमशिला-महाविहार की उच्चतम डिग्री थी। चीनी यात्री
इत्सिंग के अनुसार श्रेष्ठ विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के द्वारों पर अंकित
किये जाते थे।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। इस विश्वविद्यालय में व्याकरण, न्याय, दर्शन और तंत्र के अध्ययन की विशेष व्यवस्था थी। यह विश्वविद्यालय वज्रयान सम्प्रदाय से संबंधित साहित्य और तंत्रवाद के अध्ययन का सबसे बड़ा केन्द्र था। पाल शासकों के काल में बौद्ध धर्म के तहत तंत्रज्ञान (वज्रयान) का विकास हुआ। पाल सम्राटों ने उदंतपुरी (बिहारशरीफ), संधौन (बेगूसराय), सोमपुर (बांग्लादेश) और विक्रमशिला में तांत्रिक पीठ की स्थापना की थी। विक्रमशिला सबसे बड़ा तांत्रिक केन्द्र था। अनेक इतिहासकारों का विश्वास है कि विक्रमशिला में तंत्र की साधना के साथ नरबलि की भी प्रथा थी। इतिहासकारों का मत है कि महाविहार में पढ़ाई जाने वाली तंत्र में सिद्धि के लिए छात्र वर्तमान में उत्खनन-स्थल से दो किलोमीटर दूर, शांत गंगा के किनारे बटेश्वर-स्थान जाते थे। बटेश्वर-स्थान आज भी सिद्ध-पीठ के नाम से विख्यात है।
ज्येष्ठ धर्म स्वामी लामा ने (1153-1216
ई0) तथा कश्मीरी विद्वान शाक्य श्रीभद्र ने (1145-1225 ई0) ने विक्रमशिला को
प्रसिद्ध विद्या केन्द्र के रूप में देखा था। लेकिन पुन: धर्म स्वामी लामा जब
1235 ई0 में नालन्दा आये तब उन्होंने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नहीं पाया।
इससे निष्कर्ष निकलता है कि 1225 ई0 से 1235 ई0 के बीच मुस्लिम आक्रमणकारियों ने विक्रमशिला
विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था। इस सन्दर्भ में 'तबकाते नासिरी' से भी जानकारी मिलती है। लामा तारानाथ
ने लिखा है कि तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार को सुनियोजित तरीक से
नष्ट-भ्रष्ट किया। संपूर्ण महाविहार में आग लगा दी गई। मूर्तियों को भी
टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़ दिया गया तथा यहाँ के विश्वविख्यात पुस्तकालयों को भी जला
दिया गया। तारानाथ के अनुसार तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार का विध्वंस कर
उसके समीप ही महाविहार की ईटों और पत्थरों से एक किले का निर्माण किया और उस किले
में वे कुछ समय तक रुके रहे।
महाविहार का परिसर लांगुडी पहाड़ी के समीप स्थित तीन पहाडियों- उदयगिरि, रत्नगिरि और ललितगिरि में फैला हुआ था। महाविहार में अनेक स्तूप, मठ, मन्दिर तथा मूर्तियां मिलती हैं जो अधिकांशत: गुप्त काल की हैं। ओडिशा की ब्रह्मनी नदी की सहायिका केलुआ नदी जो लांगुडी की पहाडियों के उत्तर पूर्व में बहती है, इस महाविहार की सुन्दर पृष्ठभूमि तैयार करती थी। इन तीन पहाड़ियों में उत्खनन से बने पेगोड़ा के अवशेष, नक़्क़ाशीदार पत्थर के प्रवेशद्वार तथा रहस्यमयी बौद्ध प्रतिमाएँ मिली है। किन्तु इस स्थल की सबसे कीमती खोज सम्राट अशोक के दो उत्कीर्ण चित्र हैं जिनमें से एक में अकेले सम्राट अशोक तथा दूसरे में उन्हें दोनों रानियों के साथ दर्शाया गया है।
प्रथम या द्वितीय शताब्दी का ललितगिरि इन तीनों में सबसे पुराना है। यह विश्व के प्राचीनतम बौद्ध संस्थापनों में से एक है। यह सड़क मार्ग द्वारा भुवनेश्वर और कटक से जुड़ा हुआ है। ललितगिरि में हाल ही में हुई खुदाई में महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्री मिली है, जिससे ज्ञात होता है कि यह बौद्ध शिक्षा का एक महान केन्द्र था। यहॉं पर ईंटों से बने मठ, एक चैत्य कक्ष, कई मन्नत स्तूप और एक पाषाण निर्मित स्तूप के अवशेष पहाड़ी पर मिले हैं। यहां सम्राट अशोक महान् के भी चित्र उतकीर्ण किये गये हैं। इसके आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि मूलत: पुष्पगिरि महाविहार की स्थापना सम्राट अशोक द्वारा ही की गयी होगी। ललितगिरि में एक संग्रहालय भी है जहां खुदाई में मिली हुई वस्तुओं को दर्शाया गया है। इनमें विशाल बुद्ध मूर्तियां, बोधिसत्व की मूर्तियां, तारा, जम्भाली एवं अन्य मूर्तियां सम्मिलित हैं। अधिकांश कृतियों पर छोटे-छोटे अभिलेख उत्कीर्ण किये गये हैं। यहॉं तीन मंजूषाएं भी मिली हैं जिनमें से दो में कीमती पत्थर, चॉंदी और सोने की छोटी मंजूषाओं के अन्दर पवित्र अवशेष संरक्षित हैं। संभवत: ये संरक्षित अवशेष महात्मा बुद्ध के हैं।
वर्ष 2009 में बिहार सरकार ने पुरातत्व निदेशक डा. अतुल कुमार वर्मा के नेतृत्व में इस स्थल का उत्खनन आरम्भ कराया। उत्खान में प्राचीन मृद्भाण्ड, अन्य वस्तुएं तथा ह्वेनसांग द्वारा उल्लिखित तीन मंजिला संरचना के अवशेष मिले हैं। इस महाविहार में प्रार्थना कक्ष एवं आवासीय प्रकोष्ठों के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस स्थान की खुदाई में निम्नलिखित कालों की परतें मिली हैं-
ब्रिटिश काल के दौरान इस स्थल से प्राप्त कई मूर्तियां संग्रहालयों में रखवा दी गईं थीं। इण्डियन म्यूजियम, कोलकता में तेल्हारा से प्राप्त हुई मैत्रेय तथा बारह भुजाधारी अवलोकितेश्वर की प्रतिमाएं सुरक्षित हैं। इसी स्थल से प्राप्त पालयुगीन एक मूर्ति जर्मनी में ज्यूरिख के राइटबर्ग संग्रहालय में रखी हुई है। तेल्हारा में एक मस्जिद है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण बौद्ध महाविहार के अवशेषों से किया गया था।
वर्ष 2014 में तेल्हारा में महाविहार (विश्वविद्यालय) होने के प्रमाण मिल गये हैं। वर्ष 2014 में ही यहां भगवान बुद्ध की पत्थर की एक प्रतिमा खुदाई में मिली है। तीन फीट ऊंची यह प्रतिमा ध्यानवस्था में बुद्ध की है। यह प्रतिमा पाल राजाओं के काल की बताई जा रही है। इस खुदाई स्थल से गोंद में बच्चा लिए हुए मां की तीन सेंटीमीटर ऊंची कांस्य प्रतिमा भी मिली है। अभी तक खुदाई से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में यह स्थल काफी विशाल बौद्ध अध्ययन केंद्र रहा होगा। अभी बुद्ध की काले पत्थर वाली जो प्रतिमा मिली है वह महज १० फीट नीचे से मिली है। कुछ दिन पहले चामुंडा की कांसे की प्रतिमा भी यहीं से मिली है। डॉ0 अतुल कुमार वर्मा की राय में तेलहारा स्थल थेरवाद संप्रदाय के बौद्धों का मठ रहा होगा। विश्वविद्यालय के अवशेषों से पता चला है कि यह नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से भी प्राचीन है। यह महाविहार पहली शताब्दी में अस्तित्व में था, जबकि नालंदा चौथी और विक्रमशिला सातवीं शताब्दी का है। बिहार सरकार के कला संस्कृति विभाग के पुरातत्व निदेशालय को खुदाई में प्राप्त महाविहार की मुहर के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह राज्य का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है। कोलकाता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. एस सान्याल ने पाली लिपि में मुहर पर अंकित अक्षरों को पढकर इसका नाम बताया है। श्री सान्याल के अनुसार इस विश्वविद्यालय का नाम तिलाधक, तेलाधक्य या तेल्हाड़ा नहीं बल्कि प्रथम शिवपुर महाविहार है।
ऐसा माना जाता है कि पाल शासक धर्मपाल ने अपने राज्य में विभिन्न स्थानों पर लगभग 30 महाविहारों की स्थापना की थी और यह उनमें से एक था। इस महाविहार का संबंध दीपंकर श्रीज्ञान ‘अतिश’ से है जिनका जन्म मुंशीगंज जिले के ही वज्रयोगिनी नामक गॉंव में हुआ था। दीपंकर श्रीज्ञान अतिश के समय यह क्षेत्र बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था और लगभग 8,000 विद्यार्थी एवं आचार्य यहॉं पठन-पाठन हेतु आते थे। इनमें चीन, तिब्बत, नेपाल और थाईलैण्ड से आए हुए विदेशी विद्वान और छात्र भी सम्मिलित थे।
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत प्राचीनकाल से शिक्षा एवं पठन-पाठन कार्य के लिए प्रसिद्ध था। यहॉं प्राचीनकाल से ही गुरुकुल परम्परा चली आ रही थी, किन्तु बौद्ध धर्म के उदय एवं विकास के साथ ही देश के विभिन्न भागों में मठों एवं विहारों का निर्माण हुआ जिनमें से अनेक महाविहार और कालान्तर में महाविश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुए। इस प्रकार आधुनिक विश्वविद्यालय की संकल्पना को जन्म देने का श्रेय बौद्ध धर्म को दिया जा सकता है। किन्तु यह ध्यातव्य है कि इन विश्वविद्यालयों में केवल बौद्ध धर्म ही नहीं, वरन योगशास्त्र, गणित, चिकित्सा, शस्त्र-विद्या आदि विभिन्न विषयाें की शिक्षा दी जाती थी। इसी कारण ये विश्वविद्यालय का रूप ले सके। मुस्लिम आक्रमणकारियों के लगातार आक्रमणों से इन विश्वविद्यालयों का अस्तित्व धूल-धूसरित हो गया। आज इनकी गौरव गाथा के प्रमाण स्वरूप इनके भग्नावशेष ही रह गये हैं।
वल्लभी
बल्लभी प्राचीन भारत का एक नगर है, जो पश्चिमी भारत के सौराष्ट्र में और बाद में गुजरात राज्य, भावनगर के बंदरगाह के
पश्चिमोत्तर में खम्भात की खाड़ी के मुहाने पर स्थित
था। यह पाँचवीं से
आठवीं शताब्दी तक मैत्रक वंश की राजधानी रहा। वर्तमान समय में इसका नाम वल नामक भूतपूर्व रियासत तथा उसके
मुख्य स्थान वलभी के नाम में सुरक्षित रह गया है। बुंदेलों के परम्परागत इतिहास से
सूचित होता है कि वल्लभीपुर की स्थापना उनके पूर्वपुरुष कनकसेन ने की थी जो श्री
रामचन्द्र के पुत्र लव का वंशज था। इसका समय 144 ई. कहा जाता है। इतिहासकारों के अनुसार
वलभी नगर की स्थापना लगभग 470 ई. में मैत्रक वंश
के संस्थापक भट्टारक ने की थी। ‘वल’ नामक गाँव से मैत्रकों के ताँबे के अभिलेख और मुद्राएँ पाई गई हैं। वल्लभीपुर या
वलभि से यहाँ के शासकों के उत्तरगुप्तकालीन अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
वलभी विश्वविद्यालय: गूगल चित्र से साभार |
इस शिक्षा केन्द्र
में विहार का निर्माण सर्वप्रथम राजकुमारी टुड्डा ने कराया था। उसके बाद राजा
धरसेन ने 580 ई0 में दूसरा विहार बनवाया जिसका नाम श्री बप्पपाद था। इस विहार का
निर्देशन और प्रशासन आचार्य स्थिरमति द्वारा किया जाता था। वललभी का शिक्षा केन्द्र
तक्षशिला और नालन्दा की परम्परा में ही विकसित हुआ था। वल्लभी लगभग 780 ई. तक मैत्रकों की राजधानी बना रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि लगभग 725-735
ई0 में सौराष्ट्र पर हुए अरब आक्रमणों से यह बच
गया था।
जैन अनुश्रुति के
अनुसार जैन धर्म की तीसरी परिषद् छठी शती ई. वल्लभीपुर में हुई थी, जिसके अध्यक्ष
देवर्धिगणि नामक आचार्य थे। इस परिषद् के द्वारा प्राचीन जैन आगमों का सम्पादन किया गया
था। जो संग्रह सम्पादित हुआ उसकी अनेक प्रतियाँ बनाकर भारत के बड़े-बड़े नगरों में
सुरक्षित कर दी गई थी। जैन ग्रन्थ ‘विविध तीर्थ कल्प’ के अनुसार वलभि गुजरात की परम वैभवशाली नगरी थी।
वलभि नरेश शीलादित्य ने रंकज नामक एक धनी व्यापारी का अपमान किया था, जिसने अफ़ग़ानिस्तान
के अमीर या हम्मीरय को शीलादित्य के विरुद्ध भड़काकर आक्रमण करने के लिए निमंत्रित
किया था। इस युद्ध में शीलादित्य मारा गया था।
वल्लभी बौद्धधर्म की हीनयान शाखा का महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र था और यहाँ कई बौद्ध मठ भी थे। इस विश्वविद्यालय के संरक्षण के लिए मैत्रक राजाओं ने अपार धन व्यय किया।
सातवीं सदी में वलभी उतना ही प्रसिद्ध और समृद्ध था जितना कि नालन्दा विश्वविद्यालय।
यहाँ
सातवीं सदी के मध्य में चीनी यात्री ह्वेनसांग और सातवीं सदी के अन्त में इत्सिंग आए थे
जिन्होंने इसकी तुलना बिहार के नालन्दा से की थी। इन्होंने अपने विवरणों में इस
विश्वविद्यालय के बारे में कहा है कि भारत की संस्कृति के सभी आयाम यहाँ प्रकाशित
हैं। यहाँ के स्नातक होना ही योग्यता का पर्याय है। ह्वेनसांग ने यहां के 100
विहारों और 6,000 भिक्षुओं का उल्लेख किया है जिनमें से अधिकांश सम्मितिय मत के थे। वे ‘अन्तर्भाव’ सिद्धान्त में
विश्वास करते थे और 'पुग्गलवाद' के प्रचारक थे जिसके अनुसार ‘अभिधर्म’ की शिक्षाओं को नकार दिया गया था क्योंकि वे ‘सूत्र’ शिक्षाओं की
विरोधी थीं। ह्वेनसांग ने वलभी नगर में बहुत से हिन्दू मन्दिर और बड़ी संख्या में हिन्दुओं के निवास
करने का भी उल्लेख किया है। महात्मा बुद्ध ने भी इस स्थान का भ्रमण किया था।
वलभी में जिन जिन स्थानों पर महात्मा बुद्ध गये थे, उन स्थानों पर सम्राट अशोक
द्वारा स्तूप निर्मित कराये जाने का उल्लेख भी ह्वेनसांग ने किया है।
इत्सिंग के अनुसार वलभी
विश्वविद्यालय में विदेशों से आये छात्र भी अध्ययन करते थे। इससे पता चलता है कि
वलभी की पहचान अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी थी। यहां एक विशाल पुस्तकालय था जिसका
अनुरक्षण राजा द्वारा स्थापित कोष से किया जाता था। राजा गणेश के अभिलेख से इसकी
पुष्टि होती है। नालन्दा से आये हुए प्रसिद्ध विद्वानों गुणमति और स्थिरमति को इस
विश्वविद्यालय का संस्थापक माना जाता है। चूँकि वे नालन्दा से आये थे, इसलिए
वलभी विश्वविद्यालय की अधिकांश गतिविधियां नालंदा की परम्परा पर ही आधारित थीं। विक्रमशिला
विश्वविद्यालय की भांति यहां भी विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य
द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे। गंगा की तलहटी से अनेक ब्राह्मण अपने पुत्रों को शिक्षा प्राप्त
करने के लिए यहां भेजते थे। इससे इस विश्वविद्यालय का महत्व पता चल जाता है। इतिहासवेत्ता
अलतेकर महोदय ने भी अपने अध्ययन में वलभी को देव संस्कृति का कीर्ति स्तम्भ माना
है।
वलभी में सौ करोड़पति
रहते थे जिनका आर्थिक सहयोग इस महाविहार को मिलता रहता था। अनेक राजाओं द्वारा भी
इस महाविहार को दान दिया गया था। गन्थों के लिए भी यहॉं दान प्राप्त होते रहते
थे। इस प्रकार वलभी
विश्वविद्यालय की प्रसिद्ध 475 ई0 से लगभग 1200 ई0 तक रही। बारहवीं सदी के अन्त
में जब मुसलमानों के आक्रमण होने लगे तब अन्य विश्वविद्यालयों की भॉंति यह भी
नष्ट हो गया।
ओदन्तपुरी
इसे उदन्तपुरा अथवा
उड्डन्तपुरा के नाम से भी जाना जाता था। पाल वंश के शासक
गोपाल प्रथम ने, जो 730 ई0 में राजा हुआ था, ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय
की स्थापना की थी। किन्तु प्रो0 आर0सी0
मजूमदार इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय पाल शासक धर्मपाल को देते हैं
जिसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की भी स्थापना की थी। इसका यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि
यह एक सीधी ढलान वाली पहाड़ी पर स्थित था और नीचे मैदान से देखने पर यह एक ‘उड़ती
नगरी’ जैसा लगता था। यह पंचानन नदी के किनारे हिरण्यपर्वत नामक पहाड़ी पर स्थित था। इसकी पहचान वर्तमान बिहार शरीफ़ नगर के समीप एवं नालन्दा से लगभग 6 मील दूर स्थित एक स्थल से की गई है। विश्वविद्यालय
का उत्खनन कार्य नहीं होने के कारण यह आज भी धरती के गर्भ में दबा है, जिसके कारण
बहुत ही कम लोग इस विश्वविद्यालय के इतिहास से परिचित हैं।
ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय: गूगल चित्र से साभार |
तिब्बती इतिहासकारों के अनुसार, ओदन्तपुरी
विश्वविद्यालय में लगभग 12,000 छात्र थे। यह विश्वविद्यालय वज्रयान सम्प्रदाय तथा तन्त्र विद्या का केन्द्र था। ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय प्रतिभाशाली विद्वानों
एवं विद्यार्थियों का गढ़ था। विक्रमशिला के आचार्य श्री
गंग यहां के छात्र रह चुके थे। यहां धर्मरक्षित, चन्द्रकीर्ति और शीलरक्षित नामक प्रसिद्ध विद्वान थे। यहां के विद्वान भिक्षुओं द्वारा प्रचुर मात्रा में साहित्यिक कृतियों की
रचना की गई थी। यही नहीं, यहां एक नई लिपि का भी विकास हुआ और यह लिपि काफी समय तक
उत्तर भारत में बौद्ध ग्रन्थों की रचना के लिए मानक लिपि के रूप में प्रयुक्त
होती रही। यहॉं के बौद्ध भिक्षु प्रभाकर ने ‘सामुद्रिक व्यंजन वर्णन’ नामक ग्रन्थ का तिब्बती भाषा में
अनुवाद किया था। विक्रमशिला का रत्नाकररक्षित यहॉं सर्वास्तिवादी शाखा का छात्र
था। ओदन्तपुरी के भिक्षुओं ने तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण
कार्य किया। रचना की दृष्टि से यह विश्वविद्यालय इतना उत्कृष्ट था कि विदेशियों
ने भी इसका अनुकरण किया। तिब्बत में 749
ई0 में ‘अचिन्त्य विहार’ का
निर्माण भी ओदन्तपुरी से प्रेरणा लेकर ही किया गया था। डॉ0 एस0के0 डे0 इस
तिब्बती विहार का नाम ‘समयेविहार’ मानते हैं।
अन्य
प्राचीन विश्वविद्यालयों की भांति यह विश्वविद्यालय भी बारहवीं सदी के अन्त में
मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमले में नष्ट हो गया। आज इस विश्वविद्यालय के मूल स्थल
का उत्खनन कराये जाने की आवश्यकता है जिससे इसका गौरवशाली इतिहास लोगों के सामने
आ सके।
सोमपुर
सोमपुर भी पाल युग में बंगाल का प्रमुख बौद्ध शिक्षा
केन्द था। इसकी पहचान वर्तमान बांग्लादेश में नवगॉंव जिले में स्थित पहाड़पुर से
की जाती है। इसे 1985 में यूनेस्को विश्व विरासत स्थल का दर्जा मिल चुका है। सोमपुर
महाविहार, नालन्दा की परम्परा पर आधारित था। दोनों महाविहारों के स्थापत्य में
भी साम्य था। नालन्दा के समान ही सोमपुर से भी एक टेराकोटा अभिलेख प्राप्त हुआ
है जिससे पता चलता है कि इसकी स्थापना धर्मपाल के पुत्र एवं उत्तराधिकारी देवपाल
ने (810-850 ई0) की थी।
इस महाविहार के भग्नावशेष
एक वर्ग मील के क्षेत्र में फैले हुए हैं। इस महाविहार का एक विशाल प्रवेश द्वार
था तथा महाविहार के चारों ओर ऊँची दीवार थी। पूजागृह एवं ध्यानकक्षों के अतिरिक्त
यहां भिक्षुओं के लिए 177 कक्ष भी बने थे। भग्नावशेषों में तीन-मंजिला इमारतों के
अवशेष भी मिले हैं। इसके अतिरिक्त एक बड़े भोजनकक्ष तथा रसोईं के भी प्रमाण मिले
हैं। इस विश्वविद्यालय की ख्याति लगभग 750 वर्षों तक रही। मुस्लिम आक्रमणों के
समय अन्य महाविहारों की भॉंति इसका भी अस्तित्व समाप्त हो गया।
जगद्दल महाविहार
नालन्दा एवं विक्रमशिला की तुलना में जगद्दल विश्वविद्यालय
के बारे में अधिक ज्ञात नहीं है। कई वर्षों तक इसके मूल स्थान का पता नहीं लगाया
जा सका। सर्वप्रथम ए.के.एम. ज़कारिया ने उन पॉंच सम्भावित स्थलों का निरीक्षण
किया जो ‘जगदल’ या उससे मिलते जुलते नाम से प्रसिद्ध
थे। ये पॉंच सम्भावित स्थल इन स्थानों पर थे- पंचगढ़ में राजशाही-मालदा
क्षेत्र, ठाकुरगॉंव का हरिपुर उपजिला,
दीनजपुर में बोचागंज उपजिला, नवगॉंव में धामोरहाट उपजिला, और मालदा में बामनगोला
ब्लॉक। इनमें से ऐतिहासिक महत्व के भग्नावशेष केवल नवगॉंव के जिले में प्राप्त
हुए हैं। यह स्थान पहाड़पुर के निकट वर्तमान बॉंग्लादेश में स्थित है। पिछले
लगभग एक दशक में यूनेस्को के तत्वावधान में किये गये उत्खनन कार्य से यह सिद्ध
हो चुका है कि यह स्थल एक बौद्ध महाविहार था।
जगद्दल विश्वविद्यालय: गूगल चित्र से साभार |
पाल शासक रामपाल (1077-1129 ई0) को इसका संस्थापक माना
जाता है। जगद्दल महाविहार पाल शासकों द्वारा किया गया सबसे बड़ा निर्माण कार्य था।
उस समय के पाल दरबार के प्रसिद्ध कवि सन्ध्याकरनन्दिन ने जगद्दल महाविहार का
वर्णन अपने ग्रन्थों में किया है। तिब्बती स्रोतों के अनुसार, पॉंच बौद्ध
महाविहार सर्वप्रसिद्ध थे-नालन्दा, विक्रमशिला, सोमपुर, ओदन्तपुरी और जगद्दल। ये
पांचों महाविहार राजकीय संरक्षण में थे एवं पांचों महाविहार आपसी समन्वय के आधार
पर संचालित होते थे।
जगद्दल बौद्ध धर्म की तंत्र विद्या का केन्द्र था। यह
विद्यापीठ अवलोकितेश्वर को समर्पित था और यह नालन्दा की परम्परा पर आधारित था।
तिब्बती विवरणों के अनुसार, यहां पर कई पुस्तकों का तिब्बत में अनुवाद किया गया
था। प्रसिद्ध कश्मीरी विद्वान शाक्य श्रीभद्र जो कि नालन्दा विश्वविद्यालय के
अन्तिम प्रसिद्ध विद्वान थे, ने नालन्दा, विक्रमशिला और ओदन्तपुरी विश्वविद्यालयों
का ध्वंस होने के बाद यहां प्रवेश लिया था। उन्होंने सात वर्ष तक इस विश्वविद्यालय
में अध्ययन किया था। मुस्लिम आक्रमण को अवश्यम्भावी जानकर वह 1207 ई0 में तिब्बत
चले गये। शाक्य श्रीभद्र को तिब्बत में बौद्ध धर्म की तंत्र विद्या का प्रचारक
होने का श्रेय दिया जाता है। उनके शिष्य दानशील ने दस पुस्तकों का तिब्बती भाषा
में अनुवाद किया था। मोक्षाकर गुप्त और शुभाकरगुप्त भी यहां के प्रसिद्ध आचार्य
थे। ऐसा समझा जाता है कि संस्कृति कविताओं का प्राचीनतम ज्ञात संकलन ‘सुभाषितरत्नकोश’ का संकलन विद्याकर द्वारा जगद्दल में
ही ग्यारहवीं सदी के अन्त या बारहवीं सदी के आरम्भ में किया गया था।
बारहवीं सदी के प्रारम्भ में मुस्लिम आक्रमणकारियो ने
नालन्दा एवं अन्य महाविहारों की भॉंति जगद्दल को भी नष्ट कर दिया। इतिहासकार
सुकुमार दत्त ने इसके विध्वंस का समय 1207 ई0 निर्धारित किया है। किन्तु यह तय
है कि यह मुस्लिम आक्रमणकारियों के हाथों नष्ट होने वाला अन्तिम विश्वविद्यालय
था।
यूनेस्को की
रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि उत्खनन स्थल से 105 मीटर लम्बा और 85 मीटर चौड़ा
टीला मिला है, जो प्राचीन जगद्दल महाविहार का पुरातात्विक अवशेष है। खुदाई में
टेराकोटा के प्लेट, अलंकृत ईंटें, कीलें, देवी-देवताओं की तीन पाषाण मूर्तियां और
एक स्वर्ण पिण्ड भी मिला है। इस स्थल की और विस्तृत खुदाई करने पर शायद इस
महाविहार के बारे में और जानकारी प्राप्त हो सकती है।
पुष्पगिरि
पुष्पगिरि
विश्वविद्यालय या महाविहार वर्तमान ओडिशा राज्य (प्राचीन कलिंग राज्य) में कटक
एवं जाजपुर जिलों में स्थित था। इस विश्वविद्यालय का अस्तित्व ई0पूर्व दूसरी सदी
से लेकर ग्यारहवीं सदी तक रहा। इसके अवशेष महानदी के डेल्टा से 90 किलोमीटर दूर
लांगुडी की पहाडियों पर मिलते हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 639 ई0 में इस
महाविहार के दर्शन किये थे और इसे पुष्पगिरि महाविहार के नाम से वर्णित किया है।
मध्यकाल के तिब्बती लेखों में भी इस महाविहार का उल्लेख मिलता है।
नागार्जुनकोण्डा के अभिलेख में भी इस महाविहार का उल्लेख है।
इस
महाविहार के भग्नावशेष काफी समय तक अंधकार में रहे। सन् 1995 में एक स्थानीय
कॉलेज के प्रोफेसर ने इन अवशेषों को खोज निकाला। लगभग 143 एकड़ में फैले हुए इन
अवशेषों के उत्खनन का कार्य सन् 1996 से 2006 तक Odisha Institute of Maritime and South
East Asian Studies द्वारा किया गया। वर्तमान में यहां भारतीय पुरातत्व
सर्वेक्षण द्वारा उत्खनन कराया जा रहा है।
महाविहार का परिसर लांगुडी पहाड़ी के समीप स्थित तीन पहाडियों- उदयगिरि, रत्नगिरि और ललितगिरि में फैला हुआ था। महाविहार में अनेक स्तूप, मठ, मन्दिर तथा मूर्तियां मिलती हैं जो अधिकांशत: गुप्त काल की हैं। ओडिशा की ब्रह्मनी नदी की सहायिका केलुआ नदी जो लांगुडी की पहाडियों के उत्तर पूर्व में बहती है, इस महाविहार की सुन्दर पृष्ठभूमि तैयार करती थी। इन तीन पहाड़ियों में उत्खनन से बने पेगोड़ा के अवशेष, नक़्क़ाशीदार पत्थर के प्रवेशद्वार तथा रहस्यमयी बौद्ध प्रतिमाएँ मिली है। किन्तु इस स्थल की सबसे कीमती खोज सम्राट अशोक के दो उत्कीर्ण चित्र हैं जिनमें से एक में अकेले सम्राट अशोक तथा दूसरे में उन्हें दोनों रानियों के साथ दर्शाया गया है।
इन पहाड़ियों में सबसे महत्त्वपूर्ण रत्नगिरि है, ज़िसे तत्कालीन समय का उल्लेखनीय बौद्ध
केन्द्र माना गया है। रत्नागिरि पहाड़ी केलुआ नदी के तट पर स्थित है। उत्खनन
में यहॉं तीन मठ (इनमें से दो चतुष्कोणीय हैं), आठ मन्दिर और कई स्तूप मिले हैं
जो सातवीं सदी के बताये जाते हैं। सबसे बड़ा मठ 55 वर्ग मीटर का है जिसके चारों ओर
एक बरामदा है तथा एक प्रांगण है जिसमें साठ स्तम्भ हैं। इस प्रांगण का एक
प्रवेशद्वार है। इस पसिर में एक ओर महात्मा बुद्ध की मूर्ति है तथा बौद्ध
भिक्षुओं के लिए निर्मित 24 प्रकोष्ठों के अवशेष मिलते हैं। ये प्रकोष्ठ ईंटों
से निर्मित किये गये हैं किन्तु इनके दरवाजों की चौखट पत्थर की बनी हुई मिलती
हैं। द्धार-पार्श्वों
पर सुन्दर
चित्रकारी की गई है। इसमें एक नर्तकी, अपनी दासी का आलिंगन करती एक राजसी महिला,
ध्यान मुद्रा में एक महिला के चित्र उल्लेखनीय हैं। यहॉं की चार गैलरियों में
9-10वीं सदी की सुन्दर मूर्तियों के दर्शन होते हैं। मिट्टी तथा हाथी दॉंत से बनी
वस्तुएं, ताम्रपत्र लेख तथा सांचे में मोम को पिघलाकर बनाई गई कॉंसे की मूर्तियां
भी यहॉं मिली हैं। ऐसा माना जाता है कि गुप्तोत्तर काल में यह स्थान बौद्ध शिल्प का
सम्भवतः सबसे बड़ा केन्द्र था। यहाँ के बौद्ध विहार के कलात्मक शिल्प एवं उत्कीर्ण
द्धार-पार्श्वों से यह प्रमाणित होता है।
प्रथम या द्वितीय शताब्दी का ललितगिरि इन तीनों में सबसे पुराना है। यह विश्व के प्राचीनतम बौद्ध संस्थापनों में से एक है। यह सड़क मार्ग द्वारा भुवनेश्वर और कटक से जुड़ा हुआ है। ललितगिरि में हाल ही में हुई खुदाई में महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्री मिली है, जिससे ज्ञात होता है कि यह बौद्ध शिक्षा का एक महान केन्द्र था। यहॉं पर ईंटों से बने मठ, एक चैत्य कक्ष, कई मन्नत स्तूप और एक पाषाण निर्मित स्तूप के अवशेष पहाड़ी पर मिले हैं। यहां सम्राट अशोक महान् के भी चित्र उतकीर्ण किये गये हैं। इसके आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि मूलत: पुष्पगिरि महाविहार की स्थापना सम्राट अशोक द्वारा ही की गयी होगी। ललितगिरि में एक संग्रहालय भी है जहां खुदाई में मिली हुई वस्तुओं को दर्शाया गया है। इनमें विशाल बुद्ध मूर्तियां, बोधिसत्व की मूर्तियां, तारा, जम्भाली एवं अन्य मूर्तियां सम्मिलित हैं। अधिकांश कृतियों पर छोटे-छोटे अभिलेख उत्कीर्ण किये गये हैं। यहॉं तीन मंजूषाएं भी मिली हैं जिनमें से दो में कीमती पत्थर, चॉंदी और सोने की छोटी मंजूषाओं के अन्दर पवित्र अवशेष संरक्षित हैं। संभवत: ये संरक्षित अवशेष महात्मा बुद्ध के हैं।
उदयगिरि में दो मठ खुदाई के दौरान मिले
हैं। रत्नगिरि
की भॉंति उदयगिरि काम्प्लेक्स में भी विशाल स्तूपों और मठों के अस्तित्व के
प्रमाण मिलते हैं। यहॉं पर प्राप्त पुरालेखीय प्रमाणों के अनुसार इन मठों के नाम ‘माधवपुरा महाविहार’ और ‘सिंहप्रस्थ महाविहार’ थे। मठ संख्या
एक के प्रवेश स्थान पर एक बावली का भी पता चला है। उदयगिरि स्थल का काल निर्धारण
प्रथम सदी ई0 से तेरहवीं सदी तक किया गया है।
तेल्हारा
तेल्हारा बिहार के नालन्दा जिले में स्थित एक
महाविहार था। ह्वेनसांग
ने इस स्थल को अपने वृत्तांत में ति-लो-त्से-किया बताया है। ह्वेनसांग ने लिखा है
कि तिलहारा में सातवीं शताब्दी में महायान संप्रदाय के सात मठ थे। यहीं हजारों
बौद्ध भिक्षु महायान ग्रंथों का अध्ययन कर रहे थे। चीनी यात्री इत्सिंग ने भी अपने यात्रा
वृतांत में ‘तेल्याधक’ विश्वविद्यालय
का जिक्र किया है। इत्सिंग के समय में यहॉं ज्ञानचन्द्र नामक एक बौद्ध आचार्य नीतिशास्त्र
का ज्ञाता माना जाता था। मुगलकालीन
विद्वान अबुल फ़ज़ल ने अपनी पुस्तक ‘आइने अकबरी’ में इसका उल्लेख ‘तिलादह’ के नाम से किया है और इसे तत्कालीन बिहार के 46
महाल (प्रशासनिक इकाई) में से एक बताया है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा 1842-45
ई0 में तैयार किये गये नक्शों में इस स्थान का नाम ‘अपरगन’ दर्शाया गया है। तेल्हारा के मूल स्थल के अवशेषों
की खोज सर्वप्रथम 1872 ई0 में नालन्दा के तत्कालीन मजिस्ट्रेट ए0एम0 ब्रॉडले
द्वारा की गई थी। उन्होंने
अपनी पुस्तक में इस स्थल को ‘तिलास-अकिया’ बताया है।
तेल्हारा महाविहार के अवशेष: गूगल चित्र से साभार |
वर्ष 2009 में बिहार सरकार ने पुरातत्व निदेशक डा. अतुल कुमार वर्मा के नेतृत्व में इस स्थल का उत्खनन आरम्भ कराया। उत्खान में प्राचीन मृद्भाण्ड, अन्य वस्तुएं तथा ह्वेनसांग द्वारा उल्लिखित तीन मंजिला संरचना के अवशेष मिले हैं। इस महाविहार में प्रार्थना कक्ष एवं आवासीय प्रकोष्ठों के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस स्थान की खुदाई में निम्नलिखित कालों की परतें मिली हैं-
1. उत्तर कृष्ण परिमार्जित भाण्ड(तृतीय सदी
ई0पूर्व)
2. कुषाण युग(प्रथम सदी ई0)
3. गुप्त युग (पांचवी से सातवीं सदी ई0)
4. पाल युग (सातवीं से ग्यारहवीं सदी सदी ई0)
ब्रिटिश काल के दौरान इस स्थल से प्राप्त कई मूर्तियां संग्रहालयों में रखवा दी गईं थीं। इण्डियन म्यूजियम, कोलकता में तेल्हारा से प्राप्त हुई मैत्रेय तथा बारह भुजाधारी अवलोकितेश्वर की प्रतिमाएं सुरक्षित हैं। इसी स्थल से प्राप्त पालयुगीन एक मूर्ति जर्मनी में ज्यूरिख के राइटबर्ग संग्रहालय में रखी हुई है। तेल्हारा में एक मस्जिद है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण बौद्ध महाविहार के अवशेषों से किया गया था।
वर्ष 2014 में तेल्हारा में महाविहार (विश्वविद्यालय) होने के प्रमाण मिल गये हैं। वर्ष 2014 में ही यहां भगवान बुद्ध की पत्थर की एक प्रतिमा खुदाई में मिली है। तीन फीट ऊंची यह प्रतिमा ध्यानवस्था में बुद्ध की है। यह प्रतिमा पाल राजाओं के काल की बताई जा रही है। इस खुदाई स्थल से गोंद में बच्चा लिए हुए मां की तीन सेंटीमीटर ऊंची कांस्य प्रतिमा भी मिली है। अभी तक खुदाई से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में यह स्थल काफी विशाल बौद्ध अध्ययन केंद्र रहा होगा। अभी बुद्ध की काले पत्थर वाली जो प्रतिमा मिली है वह महज १० फीट नीचे से मिली है। कुछ दिन पहले चामुंडा की कांसे की प्रतिमा भी यहीं से मिली है। डॉ0 अतुल कुमार वर्मा की राय में तेलहारा स्थल थेरवाद संप्रदाय के बौद्धों का मठ रहा होगा। विश्वविद्यालय के अवशेषों से पता चला है कि यह नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से भी प्राचीन है। यह महाविहार पहली शताब्दी में अस्तित्व में था, जबकि नालंदा चौथी और विक्रमशिला सातवीं शताब्दी का है। बिहार सरकार के कला संस्कृति विभाग के पुरातत्व निदेशालय को खुदाई में प्राप्त महाविहार की मुहर के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह राज्य का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है। कोलकाता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. एस सान्याल ने पाली लिपि में मुहर पर अंकित अक्षरों को पढकर इसका नाम बताया है। श्री सान्याल के अनुसार इस विश्वविद्यालय का नाम तिलाधक, तेलाधक्य या तेल्हाड़ा नहीं बल्कि प्रथम शिवपुर महाविहार है।
चीनी यात्री
इत्सिंग के वर्णन के अनुसार, यहां तीन मन्दिर थे। हवा चलती थी तो यहां टंगी
घंटियां बजती थीं। अब तक हुई एक वर्ग किमी की खुदाई में ये तीनों हाल, घंटियां, कांस्य
मूर्तियां आदि मिल चुकी हैं। खुदाई में ईंटें जो मिली हैं वह 42 x 32 x 6 से.मी. की हैं।
पहले यहां प्राप्त बौद्ध विहारों की संरचनाओं से इसे गुप्तकालीन (4 - 5
वीं सदी) माना जाता था लेकिन मुहर पर लिखे इतिहास ने इसे कुषाणकालीन साबित
कर दिया है। इस प्रकार खुदाई में मिले अवशेष चीनी यात्रियों
ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के वर्णन से मेल खाते हैं और इसे कुषाणकालीन महाविहार भी
सिद्ध करते हैं। इस स्थल की खुदाई का कार्य अभी भी जारी है। आशा है कि इससे इस
विश्वविद्यालय का इतिहास गहराई से पता चल सकेगा।
बिक्रमपुर विहार
विक्रमपुर विहार वर्तमान बांग्लादेश
की राजधानी ढाका से 13 मील दूर दक्षिण में मुंशीगंज जिले के रघुरामपुर गॉंव में
स्थित था। विक्रमपुर बंगाल की सबसे पुराना राजधानी थी जिसका उल्लेख वेदों में भी
मिलता है। ‘अग्रसर विक्रमपुर फाउण्डेशन’ नामक
एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन एवं जहॉंगीरपुर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग
द्वारा संयुक्त रूप से यहॉं लगभग चार वर्षों तक उत्खनन कार्य किया गया जिसके
फलस्वरूप दिनांक 23 मार्च, 2013 को इस महाविहार के अवशेष मिलने की घोषणा की गई।
बांग्लादेश के संस्कृति मंत्रालय ने इस कार्य हेतु वित्त की व्यवस्था की थी।
उत्खनन से प्राप्त प्रमाणों के अनुसार यह महाविहार लगभग 1000 वर्ष पुराना है।
लगभग 100 मूर्तियां अब तक यहां उत्खनन से प्राप्त हो चुकी हैं।
विक्रमपुर महाविहार के अवशेष: गूगल चित्र से साभार |
ऐसा माना जाता है कि पाल शासक धर्मपाल ने अपने राज्य में विभिन्न स्थानों पर लगभग 30 महाविहारों की स्थापना की थी और यह उनमें से एक था। इस महाविहार का संबंध दीपंकर श्रीज्ञान ‘अतिश’ से है जिनका जन्म मुंशीगंज जिले के ही वज्रयोगिनी नामक गॉंव में हुआ था। दीपंकर श्रीज्ञान अतिश के समय यह क्षेत्र बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था और लगभग 8,000 विद्यार्थी एवं आचार्य यहॉं पठन-पाठन हेतु आते थे। इनमें चीन, तिब्बत, नेपाल और थाईलैण्ड से आए हुए विदेशी विद्वान और छात्र भी सम्मिलित थे।
अब तक उत्खनन में 3.5 गुणा 3.5
मीटर के पॉंच कक्ष मिल चुके हैं। इस महाविहार के वास्तविक आकार का अभी तक अनुमान
नहीं लगाया जा सका है। आशा है कि उत्खनन कार्य में प्रगति के साथ ही नये तथ्य
प्रकाश में आयेंगे और इस प्राचीन विश्वविद्यालय के इतिहास से हम परिचित हो
सकेंगे।
उपरोक्त विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त प्राचीन भारत में अनेक नगर विद्या के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थे। इनमें नागार्जुनकोण्डा तथा अमरावती, काम्पिल्य, कॉंचीपुरम्, कश्मीर, पुष्कलावती, काशी, उज्जयिनी, कान्यकुब्ज आदि नगर प्रमुख हैं। लेकिन इनमें आधुनिक विश्वविद्यालय जैसी समेकित इकाई के पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलते जैसा कि उपरोक्त विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में मिलते हैं। अत: इनका यहॉं विस्तार से उल्लेख्ा करना समीचीन नहीं होगा।
उपरोक्त विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त प्राचीन भारत में अनेक नगर विद्या के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध थे। इनमें नागार्जुनकोण्डा तथा अमरावती, काम्पिल्य, कॉंचीपुरम्, कश्मीर, पुष्कलावती, काशी, उज्जयिनी, कान्यकुब्ज आदि नगर प्रमुख हैं। लेकिन इनमें आधुनिक विश्वविद्यालय जैसी समेकित इकाई के पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलते जैसा कि उपरोक्त विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में मिलते हैं। अत: इनका यहॉं विस्तार से उल्लेख्ा करना समीचीन नहीं होगा।
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत प्राचीनकाल से शिक्षा एवं पठन-पाठन कार्य के लिए प्रसिद्ध था। यहॉं प्राचीनकाल से ही गुरुकुल परम्परा चली आ रही थी, किन्तु बौद्ध धर्म के उदय एवं विकास के साथ ही देश के विभिन्न भागों में मठों एवं विहारों का निर्माण हुआ जिनमें से अनेक महाविहार और कालान्तर में महाविश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुए। इस प्रकार आधुनिक विश्वविद्यालय की संकल्पना को जन्म देने का श्रेय बौद्ध धर्म को दिया जा सकता है। किन्तु यह ध्यातव्य है कि इन विश्वविद्यालयों में केवल बौद्ध धर्म ही नहीं, वरन योगशास्त्र, गणित, चिकित्सा, शस्त्र-विद्या आदि विभिन्न विषयाें की शिक्षा दी जाती थी। इसी कारण ये विश्वविद्यालय का रूप ले सके। मुस्लिम आक्रमणकारियों के लगातार आक्रमणों से इन विश्वविद्यालयों का अस्तित्व धूल-धूसरित हो गया। आज इनकी गौरव गाथा के प्रमाण स्वरूप इनके भग्नावशेष ही रह गये हैं।
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5 टिप्पणियां:
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बहुत ही अच्छा लेख है। साधुवाद।
bahut khub
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