ज़मी पे घुटनों रेंगता बचपन।
सीढियां चढ़ता उतरता बचपन।
रसोईघर में बैठ माँ के संग,
गीले आटे से खेलता बचपन।
कभी गमले की गीली मिटटी में,
न जाने क्या है ढूंढता बचपन।
कभी घोडा, कभी गाड़ी तो कभी,
गेंद-बल्ले से खेलता बचपन।
कभी काँधे पे बाप के बैठा,
माँ के आँचल कभी छिपता बचपन।
कभी दीवारों पे आड़ी-तिरछी,
लकीर है उकेरता बचपन।
कोई हरकत न नागवार लगे,
ऐसा प्यारा है ये लगता बचपन।
अपने बेटे को मैंने पाया जब,
लौटकर आया फिर मेरा बचपन।
-घनश्याम मौर्य
1 टिप्पणी:
सुन्दर चित्र खींचा बचपन का.
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