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शनिवार, 17 मई 2014

लोकतंत्र की राहों में, आया नया घुमाव है देख।

मेला नहीं चुनाव है देख।
सत्‍ता का बदलाव है देख।

हर मत की कुछ कीमत है,
जाग्रति का फैलाव है देख।

हिचकोले खाता था देश,
अब आया ठह‍राव है देख।

खत्‍म एक युग होने को,
आया नया पड़ाव है देख।

लोकतंत्र की राहों में,
आया नया घुमाव है देख।

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

मॉं

सुबह स्‍नान कर पूजा करती,
सुरभित कस्‍तूरी है मॉं।

चपल रसोईं में घुस जाती,
बेलन, चमच, छुरी है मॉं।

दादा-दादी, पापा, मेरी
सबकी कमजोरी है मॉं।

थपकी देकर मुझे सुलाती,
मीठी-सी लोरी है मॉं।

भांति-भांति त्‍योहार मनाती,
गीत, भजन, कजरी है मॉं।

पहिये-सा परिवार संभाले,
वह मजबूत धुरी है मॉं।
 

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

पापा जल्‍दी आ जाना



पापा जल्‍दी आ जाना। 
मुझको संग घुमा जाना। 
मैं भी जाऊँगा बाजार। 
और खिलौने लूँगा चार। 

(यह कविता बचपन में कहीं पढी थी। अपने बेटे की इस तस्‍वीर को देखकर यह कविता याद आ गई।)

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

अगर कहीं मैं अपने घर में

पापा मुझ पर धौंस जमाते, 
''होमवर्क निपटाओ।'' 
मम्‍मी मुझको डॉंट पिलातीं,
''दूध गटक पी जाओ।'' 
दादी कहतीं, ''गिर जाओगे, 
दौड-भाग मत करना।'' 
दीदी कहतीं, ''मत चिल्‍लाओ, 
मुझको तो है पढना।'' 
अगर कहीं मैं अपने घर में, 
बडा सभी से होता। 
सब पर अपना हुक्‍म चलाता,
चैन की निंदिया सोता।

रविवार, 31 जुलाई 2011

बरखा रानी

गूगल इमेज से साभार


गरज उठी घनघोर घटाएं, रिमझिम बारिश आई। 
सोंधी महक उठी मिट्टी की, प्‍यासी धरा जुड़ाई। 
ताल-पोखरे बने समुन्‍दर, नदिया भी बलखाई। 
चमक उठे मोती मक्‍के के, बेर-बेर गदराई। 
बाग-बगीचे, सड़कें, गलियां, बारिश ने धो डालीं। 
कागज की नावें बच्‍चों ने, पानी में तैरा लीं।
पंख पसारे मोर नाचता, देख मोरनी आई।
टर्र-टर्र मेंढक की गूँजें, पड़ने लगीं सुनाई।
इन्‍द्रधनुष छा गया गगन में, लाल, बैंगनी, पीला। 
हरा, आसमानी नारंगी, सुन्‍दर नीला-नीला। 
बरखा रानी नये बरस तुम, इसी तरह फिर आना। 
पशु पक्षी इंसान सभी को, जी भर कर नहलाना।

रविवार, 19 जून 2011

गर्मी की छुट्टियां - कविता



गर्मी की छुट्टियां चल रहीं।
तन-मन में मस्‍ती मचल रही।
धमा-चौकड़ी करते दिन भर।
डॉट बड़ों की रहे बेअसर।
लूडो, कैरम, आई-स्‍पाई।
हॅसना, रोना, हाथापाई।
बैट-बॉल का नम्‍बर आया।
चौका-छक्‍का खूब जमाया।
पॉंच मिनट का ब्रेक लिया है।
तब ऑरेन्‍जी जूस पिया है।
खेल शुरू होगा दोबारा।
चाहे जितना तेज हो पारा।


रविवार, 10 अप्रैल 2011

गुरुदेव की 'गीतांजलि' से


मुक्‍त मन-मस्तिष्‍क हो भय से जहॉं,
गर्व से उन्‍नत जहॉं पर भाल हो।
ज्ञान भी उन्‍मुक्‍त मिलता हो जहॉं,
जाति मजहब का न कोई सवाल हो।
शब्‍द निकलें सत्‍य के ही गर्भ से
श्रेष्‍ठता को हर कोई तैयार हो।
तर्क ही आधार हो स्‍वीकार का,
रूढि़यों से मुक्‍त जन-व्‍यवहार हो।
देशवासी सब प्रगति पथ पर बढ़ें,
शान्ति, उन्‍नति, प्रेम के आसार हों।
हे प्रभू, लेकर तुम्‍हारी प्रेरणा,
स्‍वर्ग ऐसा देश में साकार हो।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

सच्ची प्रसन्नता का रहस्य

 सर हेनरी वाटन की कविता 'Characters Of A Happy Life' उ.प्र. बोर्ड की इंटरमीडिएट कक्षा में पढ़ी थी और उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ. सीधे सरल शब्दों में रची गयी यह कविता एक वास्तविक सुखी जीवन के रहस्य को बयां करती है. आज इतने बरसों बाद भी यह कविता मेरे जेहन में बसी हुई है. इस  कविता का मैंने भावानुवाद करने का प्रयास किया है. आशा है पाठकों को पसंद आएगा. उक्त भावानुवाद को पढने के लिए कृपया नीचे लिंक पर जाएँ -






बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

फेसबुक जी फेसबुक

फेसबुक जी फेसबुक।
अपनी-अपनी केस बुक।
गोरे-काले चेहरे इसमें,
देस और परदेस बुक।
सच्‍चे-झूठे जाल बनाती,
रिश्‍तों की यह बेस बुक।
सपन सुहाये, अपन पराये,
लगती मन की ठेस बुक।
बिछडों को फिर से मिलवाये,
हो जाती है ट्रेस बुक।
डोनेशन और फरियादों की,
कहलाती है ग्रेस बुक।
क्‍या पहनावा  किसको भाये,
बन जाती है ड्रेस बुक।
मेरे तेरे सबके रंग-ढंग,
दिखलाती हर भेस बुक।
जन-जन को झकझोर जगाये,
हो जाती फिर प्रेस बुक।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कवियों का कैसा हो बसंत

कवियों का कैसा हो बसंत

कवि कवयित्री कहतीं पुकार
कवि सम्मलेन का मिला तार
शेविंग करते, करती सिंगार
देखो कैसी होती उड़न्त
कवियों का कैसा हो बसंत
छायावादी नीरव गाये
ब्रजबाला हो, मुग्धा लाये
कविता कानन फिर खिल जाए
फिर कौन साधु, फिर कौन संत
कवियों का ऐसा हो बसंत
करदो रंग से सबको गीला
केसर मल मुख करदो पीला
कर सके न कोई कुछ हीला
डुबो सुख सागरमें अनंत
कवियों का ऐसा हो बसंत

(सुभद्राकुमारी चौहान की कविता 'वीरों का कैसा हो बसंत' की पैरोडी)
रचनाकार : बेढब बनारसी

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

'गुदड़ी के लाल' की कविता 'हॉंथी तौ आपनि चाल चली'

जिउ भीतर ते तौ धुक्‍कु-पुक्‍कु, मुलु  ऊपर ते हैं बने बली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।

भालू होइगें चालू एतना, अपसै मा झगरे मरत हवैं।
चउतरफा चाटि-चाटि चटनी, चउकड़ी चउगड़ा भरत हवैं।
गदद्न पर ल्‍वाटैं मालु छानि, ई गदहन के हैं दिन बहुरे।
हीरा तजि, जीरा कै चोरी, सब उँट करैं निहुरे-निहुरे।

अब हमना बइठब गुप्‍पु-सुप्‍पु, नाहीं तौ इनकै नेति फली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


सब बैल छैल बनि गैल-गैल, सींघन ते सैल बझेलि रहे।
बग्‍घी का छाडि़ उतारि जीन, घ्‍वाड़ा सुरबग्‍घी खेलि रहे।
खाल सेर कै पहिर-पहिरि, बहुतेरे सियार हैं आये।
खउख्‍‍यानि बँदरवा एकजुट हवै, मुलु बारु न बॉंका कइ पाये।

सब मरिगें नकुना घिस्सि-घिस्सि, मुलु कबौ न याकौ दालि गली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


(अवधी भाषा के प्रसिद्ध कवि 'गुदड़ी के लाल' उर्फ गुरु चरण लाल के कविता संग्रह 'छुटटा हरहा' से)

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

बचपन

ज़मी पे घुटनों रेंगता बचपन।
सीढियां चढ़ता उतरता बचपन।
रसोईघर में बैठ माँ के संग,
गीले आटे से खेलता बचपन।
कभी गमले की गीली मिटटी में,
न जाने क्या है ढूंढता बचपन।
कभी घोडा, कभी गाड़ी तो कभी,
गेंद-बल्ले से खेलता बचपन।
कभी काँधे पे बाप के बैठा,
माँ के आँचल कभी छिपता बचपन।
कभी दीवारों पे आड़ी-तिरछी,
लकीर है उकेरता बचपन।
कोई हरकत न नागवार लगे,
ऐसा प्यारा है ये लगता बचपन।
अपने बेटे को मैंने पाया जब,
लौटकर आया फिर मेरा बचपन।

-घनश्याम मौर्य

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

गुज़र गया जो कल इतिहास का वो हिस्सा है.

गुज़र गया जो कल इतिहास का वो हिस्सा है।
तमाम उम्र भर का अच्छा-बुरा किस्सा है।
ये किस्सा हम सभी सुनते हैं और सुनाते हैं।
कभी हँसते हैं कभी रोते हैं और गाते हैं।
खबर रहे कि ये इतिहास यहीं कायम है।
महज पुराने वक्यातों का ये संगम है।
बदल सकेगा नहीं, इसकी अमिट स्याही है।
इसमें चैन-ओ-अमन कहीं, कहीं तबाही है।
इसके अन्दर नसीहतों का जो खज़ाना है।
वो वक़्त का बहुत परखा हुआ, पुराना है।
हम इन नसीहतों को आज में जब ढालेंगे।
जैसा चाहेंगे आने वाला कल बना लेंगे।
- घनश्याम मौर्य

सोमवार, 1 मार्च 2010

गौरैया (Sparrow)



आ जा री प्यारी गौरैया।
कहाँ गयी न्यारी गौरैया?
फुदक-फुदक अंगना में आ जा।
दाने डाल दिए हैं, खा जा।
चिक-चिक चूं आवाज़ लगा जा।
सखियाँ अपनी सभी बुला जा।
खली पड़ा झरोखा आ जा।
सुघड़ घरौंदा आज बना जा।
खेतों में, खलिहानों में तू।
करती फिरती थी चूं चूं चूं ।
दूर-दूर अब नज़र न आती।
गीत हमें अब कहाँ सुनाती?
नहीं बचा कोई ठीह-ठिकाना।
जहाँ हो तेरा आना-जाना।
कहाँ खेत-खलिहान बचे हैं?
आंगन - औ- दालान बचे हैं?
ऊंचे ऊंचे भवन बने हैं।
आँगन नहीं मगर सपने हैं।
सब अपने सपनों को पालें।
क्यूँ कर तुझको दाने डालें?
चाह रहे सब सुख की शैय्या।
आ जा री प्यारी गौरैया।
- घनश्याम मौर्य

सोमवार, 18 जनवरी 2010

साहित्य सृजन

चाहत है मेरी, मैं भी कुछ आरम्भ करूं साहित्य सृजन।
गीतों कविताओं की माला या कथा-कहानी, आलोचन।
देखा है, सुना, पढ़ा भी है, अनुभव कुल मेरा यही रहा।
दायरा संकुचित पहले-सा साहित्य सृजन का नहीं रहा।
साहित्य नाम पर अब कुछ भी लिख दो, सब चलता-बिकता है।
जिसके लेखन में हो विवाद, बस वही यहाँ पर टिकता है।
लेखन का विषय भले कुछ हो, सादगी न हो बस ध्यान रहे।
भरपूर मसाला हो उसमे, अभिमान और अपमान रहे।
इस बहती गंगा में, मैं भी क्यों हाथ न अपने धोऊंगा?
आदर्श सृजन के चक्कर में क्यों निरा मूर्ख बन रोऊंगा?
दो-चार विवादित रचनाएँ लिखकर चर्चित हो जाऊंगा।
पैसा, रोयल्टी, जग-प्रसिद्धि, कुछ तमगे भी पा जाऊंगा।
कुछ चाटुकारिता के बल पर पत्रिका और अख़बारों में।
कुर्सी कोई मिल जायेगी जब सत्ता के गलियारों में।
वह दिन मेरे साहित्य सृजन का सबसे मीठा फल होगा।
साहित्यकार बनना मेरा वास्तव में तभी सफल होगा।

--- घनश्याम मौर्य

शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

हास्य कविता

मानुष हों तो बसों इंग्लैंड में, गोरे मनुज जह कोऊ न कारे।
शीत दुपहरी सागर तट पे धुप चखों निज वस्त्र उतारे।
रात कटे क्लब डिस्को में अरु खेल विविध दिन के उजियारे।
मोटर पे निक्सो घर सों बुलडाग चलें संग पुँछ निकारे।