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बुधवार, 4 मई 2016

मुझको मेरी नज़र से ही गिरा रहे हैं लोग।

मुझको मेरी नज़र से ही गिरा रहे हैं लोग।
मैं देखता हूँ बौने होते जा रहे हैं लोग।

सूरज से धूप छीनकर मेरे हिसाब की,
मुझको ही रोशनी दिखा भरमा रहे हैं लोग।

चरखा थमा के मुझको, मेरा तन उघाड़कर,
मेरी ही खादी पहन के इतरा रहे हैं लोग।

मुझको बता के क़ायदे उपवास के हज़ार,
मेरी फसल की दावतें उड़ा रहे हैं लोग।

अपने करम से उनके मुकद्दर संवर गये,

पर आज हमीं पर करम फ़रमा रहे हैं लोग।

मंगलवार, 19 मई 2015

गर्मी की छुट्टियां

शुक्रवार को मेरे बच्‍चों के स्‍कूल में गर्मी की छुट्टियों की घोषणा हो गई। छुट्टी क्‍या हुई, बच्‍चों के मन में लड्डू फूटने लगे। शाम को ऑफिस से घर पहुँचने पर पता चला कि हमारे सात वर्षीय साहबजादे ने, जो कि मुझसे खुलकर बात करने में डरते हैं, हमारी श्रीमती जी के पास हमारे लिए एक मैसेज छोड़ रखा है। वह मैसेज यह था: 'पापा से कह देना, अब छुट्टियां शुरू हो गई हैं, इसलिए कल से मुझे सुबह जल्‍दी जगा कर  परेशान न किया करें।' यह मैसेज सुनकर मुझे समझ में आया कि आजकल स्‍कूली बच्‍चों के लिए गर्मी की छुट्टियों का क्‍या महत्‍व है। साल भर स्‍कूल की पढ़ाई के बोझ और अभिभावकों की डॉंट फटकार से वैसे ही गुमसुम रहते हैं, गर्मी की छुट्टियां ही तो उनके लिए आजादी की हवा का झोंका लेकर आती हैं। लेकिन जब बच्‍चों की स्‍कूल डायरी चेक की, तो मेरे मन में भी बच्‍चों के लिए दया उमड़ आई। गर्मी की छुट्टियों के लिए इतना होमवर्क दे दिया गया था कि बच्‍चों को जो अभी आजादी लग रही थी, उसकी खुशी भी छिनने वाली थी। उन्‍होंने तो खुशी में ध्‍यान ही नहीं दिया था कि उन्‍हें कितना ज्‍यादा होमवर्क मिला है। दरअसल यह होमवर्क सिर्फ उन्‍हें ही नहीं मिला, हमें यानी उनके अभिभावकों को भी मिला है। अब चाहे इसे समर कैम्‍प की एक्टिविटी कहें या कुछ और, होमवर्क तो कराना ही है। आखिर बच्‍चों को अच्‍छे ग्रेड्स जो दिलाने हैं। तो भइया, जो घूमने का प्रोग्राम बन रहा था गर्मी में, उसमें भी कटौती करनी पड़ेगी। बच्‍चे नाना-नानी के घर जाने वाले हैं, उस पीरियड में भी कटौती करनी होगी। आखिर स्‍कूल से मिले होमवर्क का सवाल है। 

शनिवार, 27 सितंबर 2014

तुमसे मिलने के बहाने तलाशने होंगे



तुमसे मिलने के बहाने तलाशने होंगे।
फिर से वो ठौर सुहाने तलाशने होंगे।
        
हमारी आशिकी परवान चढ़ी थी जिनसे,
तमाम ख़त वो पुराने तलाशने होंगे।

हमारे दरमियां क्‍यूँ सर्द सी खामोशी है,
हमको इस दूरी के माने तलाशने होंगे।

शुरू हो दौर फिर से गुफ्तगू का मेरे सनम,
हमें कुछ ऐसे फ़साने तलाशने होंगे।

सफ़र के बीच हमें छोड़ के जो चल दोगे,
उदास दिल को मयख़ाने तलाशने होंगे।

शनिवार, 20 सितंबर 2014

शहर बीमार हूँ मैं हॉफता हूँ

गूगल चित्र से साभार
 
हजारों मील हर दिन नापता हूँ।
कभी कायम, कभी मैं लापता हूँ।।

मैं सपनों का उमड़ता इक भँवर हूँ,
तरक्‍की या तबाही का पता हूँ।

है किसमें कितनी हिम्‍मत, कितनी कुव्‍वत,
मैं सबको तोलता हूॅं, भॉंपता हूँ।

मैं कातिल हूँ, लुटेरा हूँ, गदर हूँ,
कहर बन सबके दिल में कॉंपता हूँ।

धुऑं हूँ, शोरगुल हूँ, जिस्‍म-ओ-जॉं तक,
शहर बीमार हूँ मैं, हॉंफता हूँ।

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

ग़ज़ल

कभी बहुत ही अकेला हूँ मै,
कभी तो खुद में ही मेला हूँ मैं।
कभी हूँ ठण्‍डी हवा का झोंका,
कभी तो आब का रेला हूँ मैं।
कभी हूँ खुशियों  का खिलता गुलशन,
कभी दु:खों का झमेला हूँ मैं।
जहां के रंग सभी देख लिये,
कि इतनी मुश्किलें झेला हूँ मैं।
ये जिन्‍दगी भी मुझसे खेलेगी,
कि जिन्‍दगी से यूँ खेला हूँ मैं।

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

लबों पे बोल नहीं, पर ज़ुबान रखता हूँ।

लबों पे बोल नहीं पर जु़बान रखता हूँ।
चुके हैं तीर मगर मैं कमान रखता हूँ।

किसी तरह भी मयस्‍सर हो पेट को रोटी,
सुबह से शाम हथेली पे जान रखता हूँ।

कभी कहीं भी खु़द को ओढ़ता बिछाता हूँ,
मैं अपने साथ ही अपना मकान रखता हूँ।

जहॉं भी जाऊँ सवालों के वार होते हैं,
मैं अपने चेहरे पे अपना बयान रखता हूँ।

यही गु़मान है खाकी को मैं ही मुजरिम हूँ,
बकौल खादी मैं वोटों की खान रखता हूँ।

परों ने छोड़ दिया फड़फड़ाना पिंजरे में,
मैं बेकरार हूँ अब भी उड़ान रखता हूँ।

जहां की ठोकरों ने हौसला दिया है मुझे,
मैं अपनी ठोकरों में ये जहान रखता हूँ।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

तबीयत शायराना हो रही है



तबीयत शायराना हो रही है।
मोहब्‍बत एक बहाना हो रही है।

जुबॉं को खोलने से डर रहा हूँ,
कलम मेरा फ़साना ढो रही है।

तुझे सुनने की चाहत अब तो ख़ुद ही,
लगा कोयल का गाना हो रही है।

उमड़ती है मेरे अश्‍कों की गंगा,
करम मेरा पुराना धो रही है।

वो बोले शेर अपने मत पढ़ो तुम,
मोहब्‍बत अब निशाना हो रही है।

शनिवार, 17 मई 2014

लोकतंत्र की राहों में, आया नया घुमाव है देख।

मेला नहीं चुनाव है देख।
सत्‍ता का बदलाव है देख।

हर मत की कुछ कीमत है,
जाग्रति का फैलाव है देख।

हिचकोले खाता था देश,
अब आया ठह‍राव है देख।

खत्‍म एक युग होने को,
आया नया पड़ाव है देख।

लोकतंत्र की राहों में,
आया नया घुमाव है देख।

बुधवार, 26 मार्च 2014

चुनावों का मौसम करीब आ गया है।

चुनावों का मौसम करीब आ गया है।
ज़मीं से फलक पर गरीब आ गया है।

वो चाहे हो एक्टर, प्रोफेसर, गैंगस्टर,
परखने  को अपना नसीब आ गया है।

मचलते हैं  अरमां,  बदलते हैं रिश्ते,
बग़ावत  का  मौसम अजीब आ गया है।

अभी तक जिसे यार कहते थे अपना
उसी की  जगह पर रकीब आ गया है।

लटकने को तैयार  है फिर से वोटर
वो काँधे  पे  लेकर सलीब आ गया है।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

मिल गये दिल तो कैसी दूरी है

मिल गये दिल तो कैसी दूरी है।
इश्‍क को हुस्‍न की मंजूरी है।

अब तो हर सांस कह रही है यही,
बिन तेरे जिन्‍दगी अधूरी है।

हर तरफ तीर सी निगाहें हैं,
प्‍यार की राह में मजबूरी है।

मिलेगी मंजिल-ए-मकसूद तुझे,
यकीन-ओ-हौसला जरूरी है।

जिसकी खुशबू से बच सका न कोई,
प्‍यार तो ऐसी ही कस्‍तूरी है।
 

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

मॉं

सुबह स्‍नान कर पूजा करती,
सुरभित कस्‍तूरी है मॉं।

चपल रसोईं में घुस जाती,
बेलन, चमच, छुरी है मॉं।

दादा-दादी, पापा, मेरी
सबकी कमजोरी है मॉं।

थपकी देकर मुझे सुलाती,
मीठी-सी लोरी है मॉं।

भांति-भांति त्‍योहार मनाती,
गीत, भजन, कजरी है मॉं।

पहिये-सा परिवार संभाले,
वह मजबूत धुरी है मॉं।
 

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

पापा जल्‍दी आ जाना



पापा जल्‍दी आ जाना। 
मुझको संग घुमा जाना। 
मैं भी जाऊँगा बाजार। 
और खिलौने लूँगा चार। 

(यह कविता बचपन में कहीं पढी थी। अपने बेटे की इस तस्‍वीर को देखकर यह कविता याद आ गई।)

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

गजल

मैनें जिन्‍दगी अपनी तुम पर ही वारी।
ये दिन भी तुम्‍हारे ये रातें तुम्‍हारी।

जिधर देखती हूँ उधर तुम ही तुम हो,
मोहब्‍बत भी है ये अजब सी बीमारी।

तेरे हर कदम से सफर तय हो मेरा,
नहीं कोई मुश्किल अकेले तुम्‍हारी।

तुम्‍हारी जुदाई मैं यूँ सह रही हूँ,
घडी एक लगती है सदियों से भारी।

जहॉं भी हो तुम लौट आओ सलामत,
दुआ करती हर एक धडकन हमारी।

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

अगर कहीं मैं अपने घर में

पापा मुझ पर धौंस जमाते, 
''होमवर्क निपटाओ।'' 
मम्‍मी मुझको डॉंट पिलातीं,
''दूध गटक पी जाओ।'' 
दादी कहतीं, ''गिर जाओगे, 
दौड-भाग मत करना।'' 
दीदी कहतीं, ''मत चिल्‍लाओ, 
मुझको तो है पढना।'' 
अगर कहीं मैं अपने घर में, 
बडा सभी से होता। 
सब पर अपना हुक्‍म चलाता,
चैन की निंदिया सोता।

रविवार, 31 जुलाई 2011

बरखा रानी

गूगल इमेज से साभार


गरज उठी घनघोर घटाएं, रिमझिम बारिश आई। 
सोंधी महक उठी मिट्टी की, प्‍यासी धरा जुड़ाई। 
ताल-पोखरे बने समुन्‍दर, नदिया भी बलखाई। 
चमक उठे मोती मक्‍के के, बेर-बेर गदराई। 
बाग-बगीचे, सड़कें, गलियां, बारिश ने धो डालीं। 
कागज की नावें बच्‍चों ने, पानी में तैरा लीं।
पंख पसारे मोर नाचता, देख मोरनी आई।
टर्र-टर्र मेंढक की गूँजें, पड़ने लगीं सुनाई।
इन्‍द्रधनुष छा गया गगन में, लाल, बैंगनी, पीला। 
हरा, आसमानी नारंगी, सुन्‍दर नीला-नीला। 
बरखा रानी नये बरस तुम, इसी तरह फिर आना। 
पशु पक्षी इंसान सभी को, जी भर कर नहलाना।

रविवार, 19 जून 2011

गर्मी की छुट्टियां - कविता



गर्मी की छुट्टियां चल रहीं।
तन-मन में मस्‍ती मचल रही।
धमा-चौकड़ी करते दिन भर।
डॉट बड़ों की रहे बेअसर।
लूडो, कैरम, आई-स्‍पाई।
हॅसना, रोना, हाथापाई।
बैट-बॉल का नम्‍बर आया।
चौका-छक्‍का खूब जमाया।
पॉंच मिनट का ब्रेक लिया है।
तब ऑरेन्‍जी जूस पिया है।
खेल शुरू होगा दोबारा।
चाहे जितना तेज हो पारा।


रविवार, 10 अप्रैल 2011

गुरुदेव की 'गीतांजलि' से


मुक्‍त मन-मस्तिष्‍क हो भय से जहॉं,
गर्व से उन्‍नत जहॉं पर भाल हो।
ज्ञान भी उन्‍मुक्‍त मिलता हो जहॉं,
जाति मजहब का न कोई सवाल हो।
शब्‍द निकलें सत्‍य के ही गर्भ से
श्रेष्‍ठता को हर कोई तैयार हो।
तर्क ही आधार हो स्‍वीकार का,
रूढि़यों से मुक्‍त जन-व्‍यवहार हो।
देशवासी सब प्रगति पथ पर बढ़ें,
शान्ति, उन्‍नति, प्रेम के आसार हों।
हे प्रभू, लेकर तुम्‍हारी प्रेरणा,
स्‍वर्ग ऐसा देश में साकार हो।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

सच्ची प्रसन्नता का रहस्य

 सर हेनरी वाटन की कविता 'Characters Of A Happy Life' उ.प्र. बोर्ड की इंटरमीडिएट कक्षा में पढ़ी थी और उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ. सीधे सरल शब्दों में रची गयी यह कविता एक वास्तविक सुखी जीवन के रहस्य को बयां करती है. आज इतने बरसों बाद भी यह कविता मेरे जेहन में बसी हुई है. इस  कविता का मैंने भावानुवाद करने का प्रयास किया है. आशा है पाठकों को पसंद आएगा. उक्त भावानुवाद को पढने के लिए कृपया नीचे लिंक पर जाएँ -






बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कवियों का कैसा हो बसंत

कवियों का कैसा हो बसंत

कवि कवयित्री कहतीं पुकार
कवि सम्मलेन का मिला तार
शेविंग करते, करती सिंगार
देखो कैसी होती उड़न्त
कवियों का कैसा हो बसंत
छायावादी नीरव गाये
ब्रजबाला हो, मुग्धा लाये
कविता कानन फिर खिल जाए
फिर कौन साधु, फिर कौन संत
कवियों का ऐसा हो बसंत
करदो रंग से सबको गीला
केसर मल मुख करदो पीला
कर सके न कोई कुछ हीला
डुबो सुख सागरमें अनंत
कवियों का ऐसा हो बसंत

(सुभद्राकुमारी चौहान की कविता 'वीरों का कैसा हो बसंत' की पैरोडी)
रचनाकार : बेढब बनारसी

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

'गुदड़ी के लाल' की कविता 'हॉंथी तौ आपनि चाल चली'

जिउ भीतर ते तौ धुक्‍कु-पुक्‍कु, मुलु  ऊपर ते हैं बने बली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।

भालू होइगें चालू एतना, अपसै मा झगरे मरत हवैं।
चउतरफा चाटि-चाटि चटनी, चउकड़ी चउगड़ा भरत हवैं।
गदद्न पर ल्‍वाटैं मालु छानि, ई गदहन के हैं दिन बहुरे।
हीरा तजि, जीरा कै चोरी, सब उँट करैं निहुरे-निहुरे।

अब हमना बइठब गुप्‍पु-सुप्‍पु, नाहीं तौ इनकै नेति फली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


सब बैल छैल बनि गैल-गैल, सींघन ते सैल बझेलि रहे।
बग्‍घी का छाडि़ उतारि जीन, घ्‍वाड़ा सुरबग्‍घी खेलि रहे।
खाल सेर कै पहिर-पहिरि, बहुतेरे सियार हैं आये।
खउख्‍‍यानि बँदरवा एकजुट हवै, मुलु बारु न बॉंका कइ पाये।

सब मरिगें नकुना घिस्सि-घिस्सि, मुलु कबौ न याकौ दालि गली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


(अवधी भाषा के प्रसिद्ध कवि 'गुदड़ी के लाल' उर्फ गुरु चरण लाल के कविता संग्रह 'छुटटा हरहा' से)