गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

रौशनी की ओर बढ़ता जा रहा हूँ.

रौशनी की ओर बढ़ता जा रहा हूँ।
मैं किसी पर्वत पे चढ़ता जा रहा हूँ।

मील के पत्थर जो राहों में लगे हैं,
गौर से उनको मैं पढता जा रहा हूँ।

जो गुज़र कर जा चुके रही यहाँ से,
मैं निशाँ उनके पकड़ता जा रहा हूँ।

बारिशें आयें मिलें कितने ही तूफाँ,
मैं अडिग हूँ सबसे भिड़ता जा रहा हूँ।

छोड़कर अपने निशाँ मैं दूसरों की,
राह को आसान करता जा रहा हूँ।

2 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

सुन्दर रचना है।बधाई।

अमिताभ मीत ने कहा…

छोड़कर अपने निशाँ मैं दूसरों की,
राह को आसान करता जा रहा हूँ।

बढ़िया है !!