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बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

गजल

मैनें जिन्‍दगी अपनी तुम पर ही वारी।
ये दिन भी तुम्‍हारे ये रातें तुम्‍हारी।

जिधर देखती हूँ उधर तुम ही तुम हो,
मोहब्‍बत भी है ये अजब सी बीमारी।

तेरे हर कदम से सफर तय हो मेरा,
नहीं कोई मुश्किल अकेले तुम्‍हारी।

तुम्‍हारी जुदाई मैं यूँ सह रही हूँ,
घडी एक लगती है सदियों से भारी।

जहॉं भी हो तुम लौट आओ सलामत,
दुआ करती हर एक धडकन हमारी।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

गजलें

-1-
इस ओर भी नजरें जरा फिरा तो दीजिये
दिल है ये बेकरार मुस्‍कुरा तो दीजिये

मुमकिन है अपने दरमियां कुछ गुफ्तगू मगर,
खामोशी की दीवार ये गिरा तो दीजिये

मेरी तरह हो जायेंगे मयखाने के कायल,
इक जख्‍म दिल पे आप भी गहरा तो लीजिये

तस्‍वीर है सुन्‍दर सफेद फूल की मगर,
इसको कोई सियाह सी धरा तो दीजिये

कुरआन सी लगेगी जिन्‍दगी की ये किताब
इसका हरेक हर्फ सुनहरा तो कीजिये


-2-
दिल ने माना था तुम खुदा निकले।
तुम भी औरों-से बेवफा निकले।

कोई धोखा न खाये मेरी तरह,
नफ़स-नफ़स से ये दुआ निकले।

प्‍यासे ही राह पर हम बढ़ते रहे,
आगे शायद कोई कुआँ निकले।

शाम का वक्‍त कैसे गुजरेगा,
कहीं तो कोई मयकदा निकले।

जाल फेंका था मछलियों के लिए,
जाल खींचा तो सीप आ निकले।

-3-
डूबते को एक तिनके का सहारा कर दिया।
तुमने इस ज़र्रे को यूँ रोशन सितारा कर दिया।

शुक्रिया भी कह न पाया था अभी तक यार को,
उसने इक एहसान फिर मुझ पर दुबारा कर दिया।

हम सहोदर थे, कहीं अपना-पराया कुछ न था।
वक्‍त ने सब बांटकर, अपना-पराया कर दिया।

मैंने जब पूछा शहर में चारागर का रास्‍ता,
मयकदे की ओर लोगों ने इशारा कर दिया।

-4-
तुम हमको यूँ नज़रों में गिरफ्‍तार कर गये।
बेखु़द हुए हम भी तो हदें पार कर गये।

यूँ जख्‍म ही देना था मेरे सीने पर देते,
क्‍यूँ दोस्‍त बन के पीठ पर तुम वार कर गये?

तूफान के डर से रहा साहिल पे मैं खड़ा,
जो हौसला रखते थे, नदी पार कर गये।

दिल की पुकार को यूँ ही सुन लेती है ममता,
तुम माँ को खबर भेजने क्‍यों तारघर गये?

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

तेरा-मेरा रिश्ता बहुत पुराना लगता है।

 -1-

तेरा-मेरा रिश्ता  बहुत पुराना लगता है।
फिर भी हर पल ताज़ा  ये याराना लगता है।

 
ऐसे बेपर्दा होकर तुम निकला करो न घर से,
कैसी-कैसी नजरों से ये ज़माना तकता है।

शाम सुहानी अपने यारों संग बितानी हो तो,
सबसे अच्छी जगह मुझे मयखाना लगता है।

ऐरे-गैरे को घर में नौकर रखने से पहले,
जात  तो उसकी पूछो, कौन घराना लगता है?

हम शहरों में रहकर चाहें गॉंवों की हरियाली,
गॉंव के बाशिंदों  को शहर सुहाना लगता है।

दिल हो ग़म  से बोझल, तनहाई में छलके प्याला,
तब जाकर होंठों पर एक तराना जगता है।


-2-


देह मे जब तक भटकती सांस है.
त्रास के होते हुए भी आस है.
दर्द कितना भी भयानक हो मगर,
मुस्कुराने का हमे अभ्यास है.
पी रहा कोई सुधा कोई गरल,
किंतु अपने पास केवल प्यास है.
रास्ते मे आयेंगे तूफान जो,
हो रहा उनका हमे आभास है.
राज्सत्ता हो मुबारक आपको,
भाग्य मे अपने लिखा वन वास है.

गुरुवार, 10 जून 2010

धूप से जलती ज़मीं बेकरार कब से है.

धूप से जलती ज़मीं बेकरार कब से है।
खेत को बारिशों का इंतज़ार कब से है।
कोई उसकी कराह को नहीं सुनने वाला,
घर के कोने में वो बूढी बीमार कब से है।
सड़क के मोड़ पर हर रोज़ खड़ा मिलता है,
वो नौजवान यूँ बेरोजगार कब से है।
दिन तो ढलने को है पर भीड़ कम नहीं होती,
राशनों की दुकान पे कतार कब से है।
सैकड़ों अर्जियां देकर थके हैं मुखिया जी,
गाँव के पास बांध में दरार कब से है.
- घनश्याम मौर्य

गुरुवार, 20 मई 2010

यूँ ही घर में न तुम बैठे रहो.

यूँ ही घर में न तुम बैठे रहो।
कभी बाहर भी तो निकला करो।
न पत्थर की तरह निर्मम बनो,
कभी थोडा-सा तो पिघला करो।
ज़रा-सा सब्र करना सीख लो,
न यूँ हर बात में मचला करो।
तुम्हारा घर कहाँ ढूंढेंगे हम,
यूँ आये दिन न घर बदला करो।
नहीं हो सांप तुम इंसान हो,
किसी पर ज़हर मत उगला करो।

गुरुवार, 6 मई 2010

हारना मुझको नहीं स्वीकार है.

इस कदर हर रास्ता पुरखार है।
मंजिल-ऐ- मक़सूद हद के पार है।

आशियाँ की छत बनाता हूँ मगर,
बादलों की उठ रही हुंकार है।

सौ बहाने हैं मददगारों के भी,
हर बहाने में छुपा इंकार है।

हर तरफ है स्याह अँधियारा मगर,
मुझको दिखता रौशनी का द्वार है।

जिस्म मैंने कर लिया फौलाद का,
रूह मेरी और भी बेदार है।

है इरादा भी अटल चट्टान-सा
हारना मुझको नहीं स्वीकार है।

बुधवार, 5 मई 2010

चार कुनबों में बंटा परिवार है.

चार कुनबों में बंटा परिवार है।
घर का मुखिया भोथरी तलवार है।

है शराफत का मुलम्मा बाहरी,
दिल से तो हर आदमी मक्कार है।

सब्र थोडा कर नहीं सकता कोई,
गैर का हक लेने को तैयार है।

रौशनी से जगमगाता घर तो है,
पर दिलों में बढ़ रहा अंधियार है।

एक-दूजे को सभी यूँ कोसते,
सांप जैसे मारता फुंफकार है।

ये नज़ारा आज तो घर-घर में है,
ताज्जुब क्या कलियुगी संसार है।

शनिवार, 1 मई 2010

सर्व-धर्म-समान तीरथ चाहिए.

सर्व-धर्म-समान तीरथ चाहिए।
ले चले सबको, वही पथ चाहिए।

भंग हो सकती तपस्याएँ कठिन,
अप्सरा या कोई मन्मथ चाहिए।

छोड़ देती कुन्तियाँ जब कर्ण को,
पालने वाला वो अधिरथ चाहिए।

हैं सुजाता, आम्रपाली आज भी,
भक्ति को कोई तथागत चाहिए।

हैं सभी व्याकुल यहाँ भूलोक में,
तारने वाला भगीरथ चाहिए.

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

रौशनी की ओर बढ़ता जा रहा हूँ.

रौशनी की ओर बढ़ता जा रहा हूँ।
मैं किसी पर्वत पे चढ़ता जा रहा हूँ।

मील के पत्थर जो राहों में लगे हैं,
गौर से उनको मैं पढता जा रहा हूँ।

जो गुज़र कर जा चुके रही यहाँ से,
मैं निशाँ उनके पकड़ता जा रहा हूँ।

बारिशें आयें मिलें कितने ही तूफाँ,
मैं अडिग हूँ सबसे भिड़ता जा रहा हूँ।

छोड़कर अपने निशाँ मैं दूसरों की,
राह को आसान करता जा रहा हूँ।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

ग़ज़ल

पनाह लेने को दर हों कई तो अच्छा है,
सफ़र के वास्ते बस एक नाव काफी है।
गरम लिहाफ जो होते तो बात ही क्या थी,
फिलहाल अपने लिए एक अलाव काफी है।
मेरे इस जिस्म को तू यूँ लहूलुहान न कर,
जान लेने को दिल पे एक घाव काफी है।
राह में हों कई चक्कर ये बात ठीक नहीं,
मज़े के लिए सिर्फ एक घुमाव काफी है।
चलो चलें ये है इंसानी कौवों की महफ़िल,
जो इतनी देर सुनी कांव-कांव काफी है।
- घनश्याम मौर्य

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

गजलें

-1-

मुझको ज़रा समझा ये माजरा तो दीजिये।
इस मौके पे फबता मुहावरा तो दीजिये।

तैयार बाज़ीगर है, खड़े हैं तमाशबीन
पर खेल दिखाने को दायरा तो दीजिये।

महफिल में अभी तक नहीं छाया है वो सुरूर,
हर शख्‍स के गिलास में सुरा तो दीजिये।

संगीत में तिलिस्‍म अब रहा नहीं भगवान,
कोई तानसेन, बैजू बावरा तो दीजिये।

मैं हूँ नयी पीढ़ी का उभरता हुआ शायर,
मुझको भी दावत-ए-मुशायरा तो दीजिये।


-2-
फ़र्ज़ और क़र्ज़ का वो मारा है.
दोनों पाटों में फँस के हरा है.

आखिरी हफ्ता है महीने का,
घर में ईंधन न कोई चारा है.

पगार वाले दिन दरवाज़े पर,
देनदारों ने फिर पुकारा है.

आज दफ्तर से घर में आते ही,
उसने बच्चों को फिर से मारा है.

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

आज तो दौर है सियासतों का

ये ज़माना नहीं रियासतों का।
आज तो दौर है सियासतों का।
आग भड़काने वाले नारों का,
मजहबी दंगों का, अदावतों का।
कार्पोरेटर से लेकर एम पी तक,
झगडा है मालदार ओहदों का।
खौफ है राह में लुटेरों का,
गली-चौराहों में डर शोहदों का।
फर्जी मुठभेड़ कर दरोगा जी,
खेला करते हैं खेल रिश्वतों का।
कल ही बनी थी आज बैठ गयी,
हाल ये है यहाँ इमारतों का,
दफ्तरों में हैं बोर्डों पे सजी,
कोई मतलब नहीं इबारतों का।
बात राहत कि बहुत दूर रही,
जवाब तक नहीं दरख्वास्तों का।
उम्र कट जाती न्याय मिलने में,
करता है जो भी रुख अदालतों का।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

हमने आँगन में दाने डाले हैं.

हमने आँगन में दाने डाले हैं।
कबूतर आकर खाने वाले हैं।

भोर की लाली छा गयी देखो
पंछी अब चहचहाने वाले हैं।

मस्जिदों में अज़ान , मंदिरों में
घंटे अब टनटनाने वाले हैं।

न्यूज़ चैनल पे आज फिर कोई,
खबर बुरी दिखाने वाले हैं।

आज तो घूमने जाना था मगर,
घर में मेहमान आने वाले हैं।


बुधवार, 24 मार्च 2010

ज़िन्दगी को मौत से बदतर बनाता आदमी.

ज़िन्दगी को मौत से बदतर बनाता आदमी।
और फिर करता शिकायत, तिलमिलाता आदमी।
दिन-ब-दिन बढती हुई इंसानियत की भीड़ में,
ठोकरें खाता हुआ दामन बचाता आदमी।
सुबह से लेकर अँधेरी रात भागमभाग में,
ऐश और आराम के साधन जुटाता आदमी।
जाने पहचाने से चेहरों में किसी को ढूंढता,
और फिर तन्हाइयों में डूब जाता आदमी।
कभी तो पीता ज़हर धोखे दवा-ए -दर्द के,
और कभी खुद ही ज़हर होठों लगाता आदमी।
दोस्ती, यारी, वफ़ा, वादों को मतलब के लिए,
तोड़कर फिर से नए रिश्ते बनाता आदमी.
- घनश्याम मौर्य

सोमवार, 22 मार्च 2010

हुस्नवाले हुस्न का अंजाम देख.

हुस्न वाले हुस्न का अंजाम देख।
तेरी गलियों में मचा कोहराम देख।
तुझ पे लट्टू हैं जवां दिल ही नहीं,
हो रहे बूढ़े भी सब गुलफाम देख।
हर कोई बेकल तेरे दीदार को,
तेरी खातिर होते क़त्ल-ऐ-आम देख।
है जवानी जब तलक कायम तेरी,
तब तलक दुनिया को तुझसे काम देख।
हुस्न तेरा एक दिन ढल जाएगा,
होगा तू गुमनाम और बेदाम देख।

- घनश्याम मौर्य