’मानक रश्मि’ अनुसंधान अभिकल्प एवं मानक संगठन (RDSO) से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक राजभाषा पत्रिका है। पत्रिका में अ.अ.मा.सं. के कर्मियों एवं अन्य साहित्यकारों की हिन्दी रचनाएं प्रकाशित की जाती हैं। किसी विशेष विधा का आग्रह नहीं होता, बस रचना मौलिक और अप्रकाशित होनी चाहिए। पत्रिका संबंधित मूल जानकारी निम्न प्रकार है-
1. प्रधान सम्पादकः श्री महेश मंगल, मुख्य राजभाषा अधिकारी एवं वरि0 कार्यकारी निदेशक/सिग्नल
2. सम्पादकः श्री जयबिन्द कुमार सिंह, उपनिदेशक/वित्त
3. उपसम्पादक श्री एफ0ए0 खान, सहायक हिन्दी अधिकारी
4. सम्पर्कः राजभाषा विभाग, अनुसंधान अभिकल्प एवं मानक संगठन (RDSO), मानक नगर, लखनऊ-226011
पत्रिका का जुलाई-सितंबर’ 2010 अंक हाल ही में प्रकाशित होकर आया है। इस अंक के प्रमुख आकर्षण हैं श्री संजीव जायसवाल ’संजय’ के उपन्यास ’सी-नेट’ का अंष। श्री संजीय जायसवाल वर्तमान में अ.अ.मा.सं. में उपनिदेशक/स्थापना के पद पर कार्यरत हैं। वह हिन्दी लेखन में काफी समय से सक्रिय हैं और एक साहित्यकार के तौर पर उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। उनकी तमाम रचनायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाषित हो चुकी हैं। डॉ0 अमिता दुबे का लेख ’आस्था की भाषा है हिंदी’ अपने शीर्षक के अनुरूप न केवल हिंदी का महिमा-मंडन करता है वरन् हिन्दी के बढ़ते प्रभुत्व को भी रेखांकित करता है। श्री प्रकाष चन्द्र रस्तोगी का रेल यात्रा वृत्तान्त ’भारतीय रेल अपनी रेल’ रोचक शैली में लिखा गया एक पठनीय लेख है। श्रीमती स्नेहलता का लेख ’भारतीय रेल राष्ट्र की जीवन रेखा’ एवं डॉ0 दिनेष पाठक ’शशि' की कहानी ’अनीता’ भी पठनीय रचनायें हैं। इसके अतिरिक्त इसी अंक में श्रीमती साधना श्रीवास्तव का स्वास्थ्य लेख ’तनाव के रंग जीवन के संग’ भी तनाव प्रबंधन की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
इस अंक में प्रधान सम्पादक के रूप में श्री महेश कुमार गुप्ता, मुख्य राजभाषा अधिकारी एवं कार्यकारी निदेशक/पुल एवं संरचना का नाम प्रकाषित किया गया है। किन्तु अब मुख्य राजभाषा अधिकारी के पद पर श्री महेश मंगल, वरि0 कार्यकारी निदेशक/सिग्नल कार्यरत हैं।
’मानक रश्मि’ का यह अंक भी अपने पूर्ववर्ती अंकों की भॉंति ही सुन्दर और पठनीय बन पड़ा है। किन्तु पत्रिका में एक बात खटकती है। पत्रिका में सदस्यता शुल्क संबंधी कोई ब्यौरा प्रकाशित नहीं किया जाता है। सम्भवतः राजभाषा विभाग इस पत्रिका की सीमित प्रतियां केवल संगठन के कर्मियों हेतु प्रकाशित करके ही संतुष्ट है। संगठन से बाहर के लोगों के लिए भी वार्षिक सदस्यता की सुविधा उपलब्ध की जानी चाहिए ताकि इस पत्रिका का प्रसार अधिक से अधिक लोगों तक हो सके तथा विभिन्न साहित्यकारों की उत्कृष्ट रचनायें पत्रिका में प्रकाषन हेतु प्राप्त हो सकें।
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