बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

पादुका पुराण


रोज़ दफ्तर जाने की तैयारी में तमाम छोटे-मोटे काम शामिल हैं। जूतों पर पॉलिश करना भी उनमें से एक है। जूते पर ब्रश मारते-मारते दिमाग़ में यह सवाल कौंध गया कि जूते का आविष्कार कब और कैसे हुआ होगा और किस महान हस्ती ने इसे बनाया होगा। शुरू-शुरू में जूते पहनने पर लोगों ने कैसा महसूस किया होगा और उन्हें जूते पहने देखकर दूसरे लोगों ने क्या प्रतिक्रिया दी होगी? वैसे जब से इंसान ने जूते पहनना शुरू किया है, तब से यह न सिर्फ़ हमारी ज़िन्दगी का बल्कि भाषा और साहित्य तक का अभिन्न अंग बन चुका है। हिन्दी और अंग्रेजी के तमाम मुहावरों और कहावतों में जूता जम कर बैठ चुका है। अन्य भाषाओं का मुझे ज्ञान नहीं है, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वहाँ भी जूते के क़दम पड़ चुके होंगे। हिन्दी में तमाम ऐसे मुहावरे हैं जिनमें जूतों की महिमा देखने को मिल जाती है। जैसे- मियाँ की जूती मियाँ के सिर, गाय मारकर जूता दान, जूतों का हार पहनाना, जूते चाटना, जूतियाँ चटकाना, जूते घिसना, जूते पड़ना, जूते के बराबर न समझना, चाँदी का जूता मारना, सौ-सौ जूते खायं तमाशा घुस के देखन जायं, जूतमपैजार होना आदि।

जूते को हम पनही या पादुका भी कहते हैं। जूता किस चीज़ का बना है, यह बात बहुत मायने रखती है। जूता चमड़े का हो तो पशुप्रेमी नाराज़ हो उठते हैं, प्लास्टिक का हो तो पर्यावरण प्रेमी और अगर चाँदी का हो, जो कि केवल प्रतीकात्मक अर्थ में होता है, तो वामपंथी आग उगल सकते हैं। जूता किसका है अथवा नहीं है, इस बात से भी बहुतों को बहुत फ़र्क पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास के जीवन की एक घटना इसी बात से जुड़ी हुई है। कहते हैं कि तुलसीदास को जीवन के आरम्भिक दिनों में भयंकर गरीबी और भुखमरी का सामना करना पड़ा। एक बार एक जगह रामकथा के साथ भण्डारे अथवा भोज का आयोजन था। भोजन करने वालों को भोजन पात्र अपने साथ ही लेकर आना था। तुलसीदास भी भोजन करने पहुँचे। जब भोजन परोसने वाले ने पूछा, ‘’दाल किसमें लेंगे?” तुलसीदास ने वहाँ पड़े जूतों में से एक जूता उठाकर कहा, ‘’इसी में परोस दो। हरिभक्त की पनही से अधिक पुनीत पात्र और क्या हो सकता है?” जूते जैसी वस्तु भी भक्ति अथवा प्रेम का आधार बन सकती है, यह इस बात पर निर्भर है कि वह जूता किसका है या नहीं है। सुदामा जब अपने मित्र कृष्ण से मिलने द्वारका पहुँचे, तो उनके काँटों से छलनी पैरों को देखकर कृष्ण बहुत रोये थे क्योंकि सुदामा भयंकर गरीबी के कारण पादुकाहीन अवस्था में ही आये थे। जूते की बात चली है, तो अवध के नवाब वाजिद अली शाह का किस्सा कैसे भूल सकते हैं। कहते हैं जब अंग्रेज़ फौज अवध पर कब्ज़ा कर चुकी थी और महल में घुसने ही वाली थी, उस समय भी वाजिद अली शाह खु़द अपने हाथों से जूते पहनने को राज़ी नहीं थे और अपने नौकर को जूते पहनाने का हुक्म फरमा रहे थे। नौकर तो जान बचाकर भाग गया लेकिन कहते हैं कि अंग्रेज सेनापति ने उन्हें गिरफ्त में लेने से पहले अपने हाथों से उन्हें जूते पहनाये थे। समकालीन समाज की बात करें, तो हाल ही में एक कॉमेडी शो पर प्रसिद्ध अभिनेता पंकज त्रिपाठी अपना एक संस्मरण सुना रहे थे। बात उन दिनों की है, जब वह दिल्ली के मौर्य शेरेटन होटल में काम करते थे। उसी होटल में एक बार अभिनेता मनोज तिवारी रुके थे। होटल में उनका एक जूता ग़ायब हो गया। पंकज त्रिपाठी ने उसे संभालकर रखा, क्योंकि वह उनके चहेते अभिनेता का जूता था। उनका यकीन था कि उस जूते में पैर डालना उनके लिए अच्छा शगुन साबित होगा। वैसे हमारे समाज में शादी-ब्याह में सालियों द्वारा जीजा के जूते चुराने की रस्म भी बहुत पुरानी है। यहाँ अधिकार का भाव दिखाई पड़ता है। जीजाजी के जूते चुराने और बदले में नेग लेने का हक तो सालियों का ही बनता है।  

जूते घुमक्कड़ी का भी प्रतीक हैं। इसी को ध्यान में रखकर हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी ने ‘बतूता का जूता’ शीर्षक से एक कविता ही लिख मारी है जिसमें मोरक्को से भारत आने वाले प्रसिद्ध यात्री इब्नबतूता की घुमक्कड़ी का ज़िक्र है। इसी कविता की वजह से बॉलीवुड में भी हंगामा मच गया और जूता बहस का केन्द्र बन गया जब फिल्म ‘इश्किया’ में गुलज़ार के लिखे एक गीत ‘इब्नबतूता बगल में जूता’ को उक्त कविता की नकल बताया गया। झगड़े का हल चाहे जिस तरह से निकला हो, लेकिन जूते की अहमियत एक बार फिर साबित हो ही गई। जूते का स्वाद राजनेताओं से लेकर मंचीय कवि और कलाकार भी चख चुके हैं। गाहे-ब-गाहे जूता उन्हें वह शोहरत दिला देता है जो शायद उन्हें दूसरे तरीकों से नसीब नहीं होती।

जूते हमारे व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग भी हैं। कहते हैं कि किसी को पहली नज़र में परखना हो तो उसके चेहरे की तरफ़ नहीं, बल्कि उसके जूतों की ओर देखना चाहिए। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ0 ज़ाकिर हुसैन जब जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के कुलपति थे, तब वह छात्रों को जूते नियमित रूप से पॉलिश करके पहनने की हिदायत देते थे। कई छात्रों पर इसका कोई असर न पड़ता देखकर एक दिन वह स्वयं पॉलिश की डिब्बी और ब्रश लेकर विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर बैठ गये। छात्रों को बड़ी शर्मिन्दगी हुई और अगले दिन से वे पॉलिश किए हुए जूते पहनकर आने लगे। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन रोज़ अपने जूतों पर स्वयं पॉलिश करते थे। एक दिन जब वह अपने जूतों पर पॉलिश कर रहे थे, उनके सेक्रेटरी किसी ज़रूरी काम से उनके कमरे में दाखिल हुए। उन्होंने हैरत से पूछा, ‘’आप अपने जूतों पर पॉलिश करते हैं?’’ लिंकन ने कहा, ‘’जी हाँ। और आप किसके जूतों पर पॉलिश करते हैं?’’

आम ज़िन्दगी में जूतों को इस्तेमाल करने का एक ख़ास तरीका है, और हम सब उन्हें उसी तरह इस्तेमाल करते हैं। वैसे तो पिछले पाँच सालों से मैं दिल्ली-एनसीआर में रह रहा हूँ, लेकिन मेरी पैदाइश और परवरिश लखनऊ की है। हमारे यहाँ बचपन से ही सिखाया जाता था कि जूतों की एक ख़ास जगह होती है, और उन्हें वहीं रखना चाहिए। बैठक, पूजा के कमरे और रसोईं में जूते या चप्पल पहनकर आने की इजाज़त बिल्कुल नहीं थी। बड़ा होने पर अपने सामाजिक दायरे में अपने दोस्तों या रिश्तेदारों के यहाँ जाना शुरू हुआ, तब पता चला कि कुछ लोगों के यहाँ बैठक के कमरे में जूते या चप्पल पहन कर जाने की इजाज़त है। चूँकि यह इजाज़त मेरे लिए भी एक सहूलियत थी, सो मैं अक्सर मेजबान से पूछे बग़ैर ही जूते पहन कर सीधे बैठक में घुसने लगा। लेकिन एक बार मेरे एक मेजबान की पत्नी ने टोक दिया कि कृपया जूते बाहर उतार दीजिये। तब से मैं कहीं भी जाता हूँ तो बैठक के बाहर ही जूते उतारने का उपक्रम करते हुए मेजबान की टिप्पणी का इंतजार करता हूँ। अगर यह सुनने को मिले कि ‘अरे यार, ऐसे ही अंदर चले आओ, जूते उतारने की क्या ज़रूरत है’, तो मन बल्लियों उछल पड़ता है और मेजबान के प्रति आदर का भाव बढ़ जाता है। जूतों को बार-बार उतारने और पहनने की समस्या के चलते मैनें बिना फीते वाले जूते भी पहनने शुरू कर दिये हैं।

किसी सार्वजनिक स्थल जैसे मंदिर, दरगाह या तीर्थस्थल आदि में जूते कुछ लोगों के लिए रोज़गार का जरिया भी होते हैं। आप ऐसे स्थानों पर जूते वाले काउन्टर पर जूते जमा करते हैं, जिससे उनका रोज़गार चलता है। जहाँ ऐसे काउन्टर न हों, वहाँ जूते चुराने वालों का रोज़गार चलता है। एक बार प्रसिद्ध साहित्यकार शरत् चन्द्र चटर्जी किसी साहित्यिक सम्मेलन में भाग लेने गये। वहाँ जूते चोरी होने की घटनाओं के बारे में उन्होंने पहले से सुन रखा था, इसलिए वह अपने जूतों को अखबार में लपेटकर मंच पर अपने बगल में रखकर बैठ गये। पास बैठे हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पूछा, “यह पोटली कैसी है शरत्? क्या कोई नई पुस्तक है?” शरत् बाबू झेंप गये। गुरुदेव ने हँसते हुए कहा, ‘’समझ गया। पादुका पुराण है न। दबाकर बैठे रहो।‘’

जूतों को लेकर सबके अलग-अलग शौक और आदतें हैं। कोई फीते वाले जूते पहनता है, तो कोई बिना फीते वाले। किसी को किरमिच पसंद है तो किसी को चमड़ा। कोई अलग-अलग मौकों के हिसाब से अलग-अलग जूते पहनता है तो कोई हर जगह एक ही तरह के जूते पहनकर जाने में ही सहूलियत महसूस करता है। वैसे, जूतों के बारे में आपका क्या ख्याल है?

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2 टिप्‍पणियां:

Pooja ने कहा…

Thank you for sharing very useful information on Essay Hindi

premiumguider ने कहा…

Karishma Sawant is an Indian television actress who plays the role of Arohi in Star Plus' famous serial "Yeh Rishta kya kehlata hai" are engaged on.