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शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

पापा, ये फाउन्‍टेन पेन क्‍या होता है?

आज ही बाजार से अपने तीन वर्षीय बेटे के लिए हिन्‍दी कविताओं की किताब लेकर आया था। मेरा बेटा उत्‍सुकता से किताब के रंग-बिरंगे पन्‍नों को पलटने लगा। एक पन्‍ने पर फाउन्‍टेन पेन का चित्र बना था। उस पर उंगली रखकर उसने कहा, 'पापा, ये देखो पेंचकस।'' मुझे हंसी आ गयी। मैनें उसे समझाने की कोशिश की कि यह पेंचकस नहीं, फाउन्‍टेन पेन है लेकिन वह टस से मस न हुआ। हॉं, उसने यह सवाल जरूर पूछा, 'पापा, ये फाउन्‍टेन पेन क्‍या होता है?' मुझे ध्‍यान आया कि इस बेचारे ने तो कभी फाउन्‍टेन पेन देखा ही नहीं। पेन की निब के आकार को देखकर उसके समतुल्‍य चीज उसे पेंचकस ही समझ में आई होगी।

वाकई फाउन्‍टेन पेन तो मानों बीते जमाने की बात हो गयी है। अब तो घर से लेकर ऑफिस तक सभी बॉल पेन रखते हैं। कोई फाउन्‍टेन पेन इस्‍तेमाल नहीं करता। मुझे याद आ गई बचपन के स्‍कूली दिनों की जब हम फाउन्‍टेन पेन से लिखा करते थे। जब पेन्सिल छोड़कर पहली बार फाउन्‍टेन पेन हाथ में पकड़ी थी, उस समय जो प्रसन्‍नता अनुभव की थी, वह शायद आज ऑफिस में पदोन्‍नति मिलने पर भी न मिले। उस समय 'किंग्‍सन' ब्राण्‍ड का फाउन्‍टेन पेन खूब चलन में था। वह मेरा पसंदीदा पेन हुआ करता था। उसकी प्‍यास बुझाने के लिए 'चेलपार्क' ब्राण्‍ड की स्‍याही की दवात हमेशा मेरे पास तैयार रहती थी। फाउन्‍टेन पेन के इस्‍तेमाल से हमारे हाथ वैसे ही रंगे रहते थे, जैसे पनवाड़ी के हाथ कत्‍थे से रंगे रहते हैं। स्‍याही के धब्‍बे हमारी बेंच, कक्षा की दीवारों, हमारे स्‍कूल बैग और हमारे ड्रेस तक पर होते थे। कई बार तो हम जानबूझकर अपनी ड्रेस पर स्‍याही के दाग लगा लेते थे ताकि देखने वालों पर रोब पड़े कि ये पढ़ीस बच्‍चे हैं। स्‍कूल में जिस दिन होली की छुटटी बोली जाती थी, उस दिन बाहर निकलने पर हम अपने-अपने फाउन्‍टेन पेन खोलकर नीली, हरी, लाल स्‍याही एक दूसरे पर छिड़कते और होली के एक दिन पहले ही स्‍कूली होली मनाते थे। घर पहुँचने पर डांट पड़ेगी, इसकी हमें परवाह न होती।

आज फाउन्‍टेन पेन का स्‍थान बॉल पेन ने ले लिया है। दाग धब्‍बों से कपड़े और हाथ खराब न हों, शायद इसीलिए फाउन्‍टेन पेन चलन से बाहर हो गया। वे दिन कितने अच्‍छे थे, जब हमारे पास हमारा प्‍यारा फाउन्‍टेन पेन होता था और स्‍याही के दाग हमारी ड्रेस की शोभा बढ़ाते थे।