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शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

पठान का सबक

एक बार एक अंग्रेज और एक पठान रेलगाड़ी के एक ही डिब्‍बे में साथ साथ यात्रा कर रहे थे। अंग्रेज को पठान के साथ यात्रा करने में घृणा का अनुभव हो रहा था, किन्‍तु वह विवश था। जब पठान लघुशंका निवारण के लिए गया, तो अंग्रेज ने उसका बिस्‍तर चलती गाड़ी से फेंक दिया। जब पठान वापस आया तो उसका सामान नदारद था। उसने अंग्रेज से अपने सामान के बारे में पूछा। अंग्रेज ने उसकी खिल्‍ली उड़ाते हुए कहा, ''तुम्‍हारा सामान गाड़ी से बाहर टहलने गया है। अभी वापस आ जायेगा।'' पठान सारा माजरा समझ गया, पर वह बोला कुछ नहीं। कुछ देर बाद अंग्रेज सो गया। तब पठान ने उसका सूटकेस उठाकर गाड़ी से बाहर फेंक दिया। कुछ समय बाद जब अंग्रेज की नींद खुली, तो उसने अपना सूटकेस न पाकर पठान से पूछा, ''मेरा सूटकेस कहॉं है  पठान ने उत्‍तर दिया, ''तुम्‍हारा सूटकेस मेरा बिस्‍तर लाने गया है।''

रविवार, 4 दिसंबर 2011

साहब की कॉलबेल

एक सरकारी महकमे में एक अधिकारी नये-नये ट्रान्सफर होकर आये थे। उन्हें कॉलबेल बजाने की बहुत बीमारी थी। कई बार वह यों ही बिना बात कॉलबेल बजाते और जब चपरासी हाजिर होता तो कहते, ’’काम तो कुछ नहीं है। मैं तो केवल चेक कर रहा था कि तुम ड्यूटी पर मौजूद हो कि नहीं।’’ उनकी इस आदत से ऑफिस के सारे लोग तंग आ चुके थे। बार बार घण्टी बजने से सबका ध्यान भंग होता था और झुंझलाहट भी होती थी, पर साहब से इस बारे में कुछ कहने की हिम्मत किसी में न थी। आखिरकार जब पानी सर से ऊपर हो गया तो सभी कर्मचारियों ने मिलकर एक तरकीब सोची। एक दिन वह साहब जब अपने चैम्बर में एक बहुत जरूरी काम में व्यस्त थे, तब चपरासी बार-बार जाकर दरवाजा खोलकर झांकता और वापस चला जाता। अंत में परेशान होकर साहब ने उसे बुलाया और डंपटते हुए पूछा, ’’तुम्हें ऑफिस मैनर्स पता नहीं हैं? बिना बुलाये बार-बार कमरे में झांक कर क्यों जाते हो?’’  चपरासी ने नरम स्वर में जवाब दिया, ’’कुछ नहीं साहब, मैं देख रहा था कि आप ड्यूटी पर मौजूद हैं या नहीं।’’ यह सुनते ही अधिकारी महोदय को शायद अपना खुद का जुमला याद आ गया। उस दिन से उन्होंने बिना बात कॉलबेल बजाने की आदत से तौबा कर ली।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

जुगाड़

एक बार एक विदेशी भारत घूमने आया। उसने भारत के बारे में बहुत पढ़ा और सुना था और उसकी भारत दर्शन की बड़ी इच्‍छा थी। इसलिए भारत भ्रमण के लिए वह अपनी महँगी कार भी साथ में लेकर आया ताकि आराम से पूरा भारत घूमा जा सके। अपनी कार में  वह  तमाम पर्यटन स्‍थलों की सैर कर रहा था। रास्‍ते में एक जगह उसकी कार खराब हो गई। उसने दौड़ भाग कर कई मैकेनिक बुलवाये लेकिन कोई उस कार को नहीं ठीक कर सका। आखिर में एक मैकेनिक ने दावा किया कि वह उसकी कार को ठीक कर सकता है। उसने कार का भली-भांति निरीक्षण-परीक्षण किया। उसने कार में लगी हुई एक लोहे की टूट गयी चकरी को निकाला और बताया कि इसे बदलना पडेगा।  'मैं अभी आया' कहकर वहां से चला गया। घण्‍टे-डेढ़ घण्‍टे बाद बाद जब वह लौटा तो उसके हाथ में लोहे की दो-तीन छोटी-छोटी वैसी ही चकरियां थीं। एक चकरी उसने कार में फिट कर दी और बाकी दो चकरियां उस विदेशी को पकड़ाते हुए कहा, ''इन्‍हें रख लीजिये, रास्‍ते में अगर फिर टूट जाये तो लगवा लीजियेगा।'' विदेशी उस मैकेनिक की तरकीब पर खुश भी हुआ और आश्‍चर्यचकित भी। उसने पूछा, ''यह कौन सी चीज है?'  मैकेनिक ने जवाब दिया, ''साहब, इसे जुगाड़ कहते हैं।''  विदेशी ने यह शब्‍द भली-भांति दिमाग में बैठा लिया।

भारत दर्शन के बाद जब वह अपने देश लौटने को हुआ तो उसने सोचा क्‍यों न भारत के प्रधानमंत्री से भी मुलाकात की जाये और भारत दर्शन के अपने अनुभवों के बारे में उन्‍हें बताया जाये। बड़ी मुश्किल से उसकी मुलाकात प्रधानमंत्री से हुई। उसने भारत और यहां के लोगों की बड़ी तारीफ की और बताया कि उसे भारत में एक चीज बहुत पसंद आई और वह उसे अपने देश ले जाना चाहता है। प्रधानमंत्री के पूछने पर उसने जवाब दिया कि वह चीज है 'जुगाड़'। प्रधानमंत्री ने जवाब दिया, 'वह मैं आपको कैसे दे सकता हूँ, उसी से तो मेरी सरकार चल रही है।''

सोमवार, 27 जून 2011

हलुआ अंकल

गूगल इमेज से साभार
 
अभी कुछ देर पहले ही समीर लाल जी की पोस्‍ट 'बचपन के दिन भुला न देना' पढ़ी। पढ़कर मजा तो आया ही साथ ही मेरे अपने बचपन और घर परिवार के बच्‍चों से जुड़ी घटनायें भी ताजा हो गईं। ऐसी ही एक मजेदार घटना आपसे शेयर करने को जी चाहता है। 

मेरे बड़े भाई साहब केन्‍द्रीय सरकार के कर्मचारी हैं। यह घटना उन दिनों की है जब उनकी पोस्टिंग चण्‍डीगढ़ में थी। उनकी बड़ी बेटी भूमिका उस समय तीन वर्ष की थी। एक दिन भाई साहब ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे, उसी समय किसी का टेलीफोन आ गया। नन्‍हीं भूमिका ने, जिसे फोन की घण्‍टी बजने पर सबसे पहले झपट कर फोन उठाने का शौक था, अपनी आदत के मुताबिक तुरन्‍त फोन उठा लिया और बोली, ''हैलो, कौन बोल रहा है'' उधर से जवाब आया, ''बेटा, मैं अहलूवालिया अंकल बोल रहा हूँ। जरा अपने पापा जी से बात कराइये।'' नन्‍हीं बच्‍ची ने अपने पापा को फोन पकड़ाते हुए कहा, ''पापा, ये लो, हलुआ अंकल का फोन है।'' भाई साहब ने जब फोन पर बात की तब उन्‍हें पता चला कि 'हलुआ अंकल' कौन हैं। इस घटना को जब उन्‍होंने हम सबको सुनाया तब हम हंसते हंसते दोहरे हो गये। 

नन्‍हीं भूमिका अब आठ साल की हो गई है लेकिन अब भी हम यह घटना सुनाकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वास्‍तव में ऐसी घटनायें ही हमारे बचपन को यादगार बना देती हैं और इन्‍हीं के बहाने हम बार बार अपने बचपन में लौटते रहते हैं।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

स्‍साला एक मच्‍छर आदमी को हिजड़ा बना देता है

''स्‍साला एक मच्‍छर आदमी को हिजड़ा बना देता है।'' फिल्‍म 'यशवन्‍त' में नाना पाटेकर का बोला गया यह संवाद खूब लोकप्रिय हुआ था। तारीफ करनी चाहिए संवाद लेखक की सोच की जिसने मच्‍छर और इंसान के बीच के रिश्‍ते को नजर में रखते हुए यह संवाद लिखा। 

वैसे इस संवाद को थोड़ा गहरे अर्थ में लें तो यह असल जिन्‍दगी में भी सही साबित होता है और शायद आगे भी होता रहेगा। दरअसल अभी कुछ दिनों पहले ही विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की जो रिपोर्ट आई है उसके अनुसार दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में मलेरिया रोग की रोकथाम के लिए पिछले दशक में जो प्रयास किये गये हैं उसके कारण मलेरिया के मरीजों की संख्‍या में कमी आई है लेकिन इसका दुष्‍प्रभाव यह हुआ है कि इस दौरान इस्‍तेमाल की गयी तमाम मलेरिया रोधक दवाओं और रसायनों के प्रति मच्‍छरों ने प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। मलेरिया की प्रमुख कारगर दवा आर्टीमिसीन के प्रति मच्‍छर अधिक प्रतिरोधक हो गये हैं और अब उन पर इस दवा का वह असर नहीं हो रहा जो पहले होता था। 

यह कोई नयी बात नहीं है। इंसान के आस पास के वातावरण में और उसके दैनिक जीवन में जिन प्राणियों से उसका सामना  होता है, मच्‍छर उनमें से एक है। चूहे, छिपकली, कॉकरोच, मक्‍खी, मच्‍छर जैसे जीव न जाने कितने शताब्दियों से हमारे घरों में डेरा जमाते रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि इनमें से कॉकरोच और मच्‍छर सर्वाधिक प्रतिरोधक क्षमता वाले जीव हैं। मच्‍छरों के प्रकोप से बचने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा  अब तक न जाने कितनी दवायें, छिड़काव वाले रसायन, धूमक इत्‍यादि बनाये गये लेकिन मच्‍छर जैसा ढीठ जीव है कि हार मानने को तैयार ही नहीं। हर बार वह नयी प्रतिरोध क्षमता के साथ इंसान का खून चूसने को तैयार रहता है। मॉस्‍कीटो कॉयल से लेकर एन्‍टी-मॉस्‍कीटो वेपोराजइर और मसहरी जैसे तमाम जतन करके हम देख चुके हैं। लेकिन मच्‍छर है कि मानता ही नहीं। किसी न किसी तरह मसहरी के अन्‍दर भी मौका लगने पर घुस ही जाता है, मानों कसम खा रखी हो कि तुम कितना भी कर लो, मैं तो तुम्‍हारा खून चूस के रहूँगा। 

मशहूर अंग्रेज लेखक ए.जी. गार्डिनर का लेख 'The Fellow Traveller' याद आ गया। रेलगाड़ी के एक डिब्‍बे में अकेला बैठा लेखक और उसे रास्‍ते भर परेशान करता डिब्‍बे में उड़ता एक मच्‍छर। तमाम कोशिशों के बावजूद लेखक उस मच्‍छर को मार नहीं पाता। अन्‍त में वह स्‍वीकार करता है कि इंसान और मच्‍छर एक दूसरे के हमसफर हैं जो इस जीवनयात्रा में एक दूसरे का  साथ निभाने के लिये धरती पर आये हैं। 

हम भले ही अपने आपको दुनिया का सर्वश्रेष्‍ठ प्राणी कहते हों, लेकिन मच्‍छर जैसे छोटे जीव की प्रतिरोधक क्षमता हमारे तमाम अनुसंधानों, तमाम आविष्‍कारों, तमाम कोशिशों पर भारी पड़ रही है। शायद यही सब सोचकर संवाद लेखक ने यह डॉयलॉग लिखा था। 

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

हाय रे महंगाई

अभी शाम को ऑफिस से घर आया ही था कि मॉं ने कहा कि बाजार चलना है, घर में सब्‍जी नहीं है। मैं थका हुआ था सो कह दिया, आप रिक्‍शे से जाकर ले आयें। खैर, मॉं चली गईं। सब्‍जी लेकर वापस घर आने पर उन्‍होंने एक ऐसी ऑंखों देखी घटना सुनाई जिसे सुनकर ताज्‍जुब भी हुआ और सोचने को मजबूर भी हो गया। मेरी मॉं जिस दुकान पर सब्‍जी ले रहीं थीं उसी दुकान पर उन्‍हीं की उम्र की एक महिला, यानी लगभग 55 साल की, सब्‍जी ले रही थी। उसने लौकी खरीद कर अपने थैले में रखी। महिला ठीक-ठाक घर की लग रहीं थीं। अचानक दुकानदार ने उनसे कहा, 'आपने एक बैंगन अपने थैले में क्‍यों रख लिया, आपने तो लौकी खरीदी है।'' इस पर वह महिला नाराज हो गई। मगर दुकानदार भी अड़ गया। उसने कहा कि अपना थैला उलटकर दिखाइये। मजबूरन महिला को अपना थैला उलटना पडा तो उसमें से लौकी के साथ एक हटटा कटटा गोल बैंगन भी धम्‍म से गिरा। दुकानदार बडबडाते हुए बोला, ''अभी इतनी महंगाई में ही आप जैसे लोग चोरी पर उतर आये हैं, थोड़ी और महंगाई बढ़ेगी, तब न जाने क्‍या करेंगे?'' महिला ने किसी प्रकार का विरोध प्रदर्शन नहीं किया. वह बैंगन उन्होंने ही चुराया था.

हाय रे महंगाई, न जाने यह क्‍या क्‍या गुल खिलायेगी।

गुरुवार, 24 मार्च 2011

चक्कर स्कूल एडमीशन का

14 फरवरी को होता है वैलेन्टाइन डे। लेकिन मैं यहां वैलेन्टाइन डे पर पोस्ट लिखने नहीं बैठा। दरअसल 14 फरवरी’2011 मेरे लिए कुछ दूसरे मायनों में खास रहा। दिन था सोमवार। इसी दिन मैनें अपने बेटे तेजस का स्कूल में प्रि-नर्सरी कक्षा में दाखिला कराया। जनाब 28 अप्रैल को पूरे तीन साल के हो जायेंगें। कुछ अजीब संयोग ही है कि 28 अप्रैल 2008 को मेरे बेटे का जन्म हुआ, उस दिन भी सोमवार ही था। छोटे नवाब दिन भर घर में दून काटते रहते थे। चूँकि  घर में और कोई छोटा बच्चा नहीं है इसलिए बड़ों को दिन भर सर खपाना पड़ता था। बस, एक दिन घर में पंचायत हुई और यह निर्णय हुआ कि बच्चे को स्कूल में दाखिल करा देना चाहिए। तेजस मेरी पहली और अभी तक इकलौती संतान है (हालांकि हम पति-पत्नी की योजना है कि अभी अपने देश पर एक अदद बच्चे का बोझ और डालना है) इसलिए उसके एडमीशन के चक्कर में एक अभिभावक के रूप में स्कूल सिस्टम से भी पहली बार पाला पड़ा। कौन सा स्कूल अच्छा है, किस स्कूल तक आवागमन की सुविधायें अच्छी हैं, किस स्कूल में बच्चों को बहलाने-फुसलाने के साधन जैसे झूले, खिलौने वगैरह अच्छे हैं, किस स्कूल की फीस हमारी औकात के अन्दर है, किस स्कूल की टीचर्स बच्चों को मारती-पीटती नहीं हैं, इन सब प्वाइंट्स पर खूब माथा-पच्ची घर के सदस्यों में हुई। दफ्तर में उन सहकर्मियों के साथ भी विचार मंथन हुआ जिन्होंने हाल ही में अपने बच्चों का स्कूल में दाखिला करवाया। तब जाकर घर से करीब दो किलोमीटर दूर स्थित एक स्कूल को फाइनलाइज किया गया। पॉंच हजार रुपये की दाखिला फीस और छह सौ रुपये की मासिक फीस के साथ ही मेरे बेटे का आधुनिक युगीन दीक्षा संस्कार हो गया। यह स्कूल मेरे घर के पड़ोस में स्थित राजाजीपुरम कालोनी में है। दरअसल इस स्कूल की स्टेªटेजिक लोकेशन  ही इसके चुनाव का कारण बनी। जिस सड़क पर यह स्कूल स्थित है उसके सामने वाली सड़क के पीछे की ओर ही मेरी ससुराल भी है। मेरी मध्यमवर्गीय मितव्ययितापरक बुद्धि ने हिसाब लगाया- चूँकि  स्कूल सुबह 9 बजे से 12 बजे तक का है, और मेरा ऑफिस भी सुबह 9 बजे से ही है इसलिये सुबह ऑफिस जाते समय बच्चे को स्कूल छोड़ दूंगा । छुट्टी के बाद मेरा साला अपने भांजे को अपने घर लेता जायेगा। आखिर ससुराल वाले किस दिन काम आयेंगे। रहा ऑफिस वक्त पर पहुँचने का सवाल, तो ऑफिस भी घर से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर है, तिस पर सरकारी नौकरी, तो इतनी लेटलतीफी तो कर ही सकते हैं। इतनी तिकड़म करके स्कूल रिक्शे  के आठ सौ रुपये महीने तो बचेंगे।


हालांकि इतने चक्करदार सिस्टम में मुझे, मेरी पत्नी, मेरे ससुरालियों सबको बड़ी परेशानी  हो रही है, कई बार ऑफिस के लिए कुछ ज्यादा ही देर हो जाती है. किसी दिन तेजस के मामा उसे लेने के लिए देर से स्कूल पहुँचते हैं, उधर स्कूल प्रबंधन भी रोज रिक्शा लगवाने के लिए मनुहार करता है पर मैं बेशर्मी  से मुस्कुराकर मना कर देता हूँ  और आठ सौ रुपये महीने बचाने के सुख का आनन्द लेता हूँ.


बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

फेसबुक जी फेसबुक

फेसबुक जी फेसबुक।
अपनी-अपनी केस बुक।
गोरे-काले चेहरे इसमें,
देस और परदेस बुक।
सच्‍चे-झूठे जाल बनाती,
रिश्‍तों की यह बेस बुक।
सपन सुहाये, अपन पराये,
लगती मन की ठेस बुक।
बिछडों को फिर से मिलवाये,
हो जाती है ट्रेस बुक।
डोनेशन और फरियादों की,
कहलाती है ग्रेस बुक।
क्‍या पहनावा  किसको भाये,
बन जाती है ड्रेस बुक।
मेरे तेरे सबके रंग-ढंग,
दिखलाती हर भेस बुक।
जन-जन को झकझोर जगाये,
हो जाती फिर प्रेस बुक।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

पापा, ये फाउन्‍टेन पेन क्‍या होता है?

आज ही बाजार से अपने तीन वर्षीय बेटे के लिए हिन्‍दी कविताओं की किताब लेकर आया था। मेरा बेटा उत्‍सुकता से किताब के रंग-बिरंगे पन्‍नों को पलटने लगा। एक पन्‍ने पर फाउन्‍टेन पेन का चित्र बना था। उस पर उंगली रखकर उसने कहा, 'पापा, ये देखो पेंचकस।'' मुझे हंसी आ गयी। मैनें उसे समझाने की कोशिश की कि यह पेंचकस नहीं, फाउन्‍टेन पेन है लेकिन वह टस से मस न हुआ। हॉं, उसने यह सवाल जरूर पूछा, 'पापा, ये फाउन्‍टेन पेन क्‍या होता है?' मुझे ध्‍यान आया कि इस बेचारे ने तो कभी फाउन्‍टेन पेन देखा ही नहीं। पेन की निब के आकार को देखकर उसके समतुल्‍य चीज उसे पेंचकस ही समझ में आई होगी।

वाकई फाउन्‍टेन पेन तो मानों बीते जमाने की बात हो गयी है। अब तो घर से लेकर ऑफिस तक सभी बॉल पेन रखते हैं। कोई फाउन्‍टेन पेन इस्‍तेमाल नहीं करता। मुझे याद आ गई बचपन के स्‍कूली दिनों की जब हम फाउन्‍टेन पेन से लिखा करते थे। जब पेन्सिल छोड़कर पहली बार फाउन्‍टेन पेन हाथ में पकड़ी थी, उस समय जो प्रसन्‍नता अनुभव की थी, वह शायद आज ऑफिस में पदोन्‍नति मिलने पर भी न मिले। उस समय 'किंग्‍सन' ब्राण्‍ड का फाउन्‍टेन पेन खूब चलन में था। वह मेरा पसंदीदा पेन हुआ करता था। उसकी प्‍यास बुझाने के लिए 'चेलपार्क' ब्राण्‍ड की स्‍याही की दवात हमेशा मेरे पास तैयार रहती थी। फाउन्‍टेन पेन के इस्‍तेमाल से हमारे हाथ वैसे ही रंगे रहते थे, जैसे पनवाड़ी के हाथ कत्‍थे से रंगे रहते हैं। स्‍याही के धब्‍बे हमारी बेंच, कक्षा की दीवारों, हमारे स्‍कूल बैग और हमारे ड्रेस तक पर होते थे। कई बार तो हम जानबूझकर अपनी ड्रेस पर स्‍याही के दाग लगा लेते थे ताकि देखने वालों पर रोब पड़े कि ये पढ़ीस बच्‍चे हैं। स्‍कूल में जिस दिन होली की छुटटी बोली जाती थी, उस दिन बाहर निकलने पर हम अपने-अपने फाउन्‍टेन पेन खोलकर नीली, हरी, लाल स्‍याही एक दूसरे पर छिड़कते और होली के एक दिन पहले ही स्‍कूली होली मनाते थे। घर पहुँचने पर डांट पड़ेगी, इसकी हमें परवाह न होती।

आज फाउन्‍टेन पेन का स्‍थान बॉल पेन ने ले लिया है। दाग धब्‍बों से कपड़े और हाथ खराब न हों, शायद इसीलिए फाउन्‍टेन पेन चलन से बाहर हो गया। वे दिन कितने अच्‍छे थे, जब हमारे पास हमारा प्‍यारा फाउन्‍टेन पेन होता था और स्‍याही के दाग हमारी ड्रेस की शोभा बढ़ाते थे।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कवियों का कैसा हो बसंत

कवियों का कैसा हो बसंत

कवि कवयित्री कहतीं पुकार
कवि सम्मलेन का मिला तार
शेविंग करते, करती सिंगार
देखो कैसी होती उड़न्त
कवियों का कैसा हो बसंत
छायावादी नीरव गाये
ब्रजबाला हो, मुग्धा लाये
कविता कानन फिर खिल जाए
फिर कौन साधु, फिर कौन संत
कवियों का ऐसा हो बसंत
करदो रंग से सबको गीला
केसर मल मुख करदो पीला
कर सके न कोई कुछ हीला
डुबो सुख सागरमें अनंत
कवियों का ऐसा हो बसंत

(सुभद्राकुमारी चौहान की कविता 'वीरों का कैसा हो बसंत' की पैरोडी)
रचनाकार : बेढब बनारसी

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

'गुदड़ी के लाल' की कविता 'हॉंथी तौ आपनि चाल चली'

जिउ भीतर ते तौ धुक्‍कु-पुक्‍कु, मुलु  ऊपर ते हैं बने बली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।

भालू होइगें चालू एतना, अपसै मा झगरे मरत हवैं।
चउतरफा चाटि-चाटि चटनी, चउकड़ी चउगड़ा भरत हवैं।
गदद्न पर ल्‍वाटैं मालु छानि, ई गदहन के हैं दिन बहुरे।
हीरा तजि, जीरा कै चोरी, सब उँट करैं निहुरे-निहुरे।

अब हमना बइठब गुप्‍पु-सुप्‍पु, नाहीं तौ इनकै नेति फली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


सब बैल छैल बनि गैल-गैल, सींघन ते सैल बझेलि रहे।
बग्‍घी का छाडि़ उतारि जीन, घ्‍वाड़ा सुरबग्‍घी खेलि रहे।
खाल सेर कै पहिर-पहिरि, बहुतेरे सियार हैं आये।
खउख्‍‍यानि बँदरवा एकजुट हवै, मुलु बारु न बॉंका कइ पाये।

सब मरिगें नकुना घिस्सि-घिस्सि, मुलु कबौ न याकौ दालि गली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


(अवधी भाषा के प्रसिद्ध कवि 'गुदड़ी के लाल' उर्फ गुरु चरण लाल के कविता संग्रह 'छुटटा हरहा' से)

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

तिल का ताड़

बात चाहे व्‍यक्तिगत स्‍तर की हो, सामाजिक स्‍तर की या राष्‍ट्रीय स्‍तर की, प्राय: यह देखा जाता है कि सारे तर्क वितर्क, वाद विवाद और कभी कभार तो हिंसा  के पश्‍चात हम वापस समझौते की स्थिति में पहुँचते हैंा वैश्‍विक स्‍तर पर भी राष्‍ट्रों के बीच भीषण युद्ध के पश्‍चात संधि होते देखी जाती हैा शायद यह इंसानी फितरत है कि आदमी कड्वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही सही रास्‍ते पर आता हैा कई बार हम किसी छोटी सी घटना को लेकर तिल का ताड़ बनाने से बाज़ नहीं आते.

एक गड़रिये के पास 101 भेंड़ें थींा उसके दो बेटे थे जो उन भेडों को चराने जाते और उनकी देखभाल करते थेा एक बार गडरिया गम्‍भीर रूप से बीमार पडा और परलोक सिधार गयाा उसके बेटों में सम्‍पत्ति का बंटवारा हुआ तो दोनों के हिस्‍से में 50-50 भेंड़ें आयींा बाकी बची एक भेड़ को किस तरह बांटा जाये, इस बात को लेकर दोनों असमंजस में थेा अंत में यह तय हुआ कि उस एक भेड़ की देखभाल दोनों भाई मिलकर करेंगे और उस भेड़ की एक ओर की   ऊन एक भाई लेगा और दूसरी ओर की ऊन दूसरा भाईा 

एक दिन एक भाई ने उस भेड की अपने हिस्‍से की ऊन काट लीा अगले दिन वह भेड नाली में मरी पड़ी मिलीा दोनों भाइयों में झगड़ा हुआा दूसरे भाई ने कहा कि एक ओर का ऊन काट लिये जाने के कारण भेड़ का संतुलन बिगड गया और वह नाले में गिर गयीा पहले भाई ने कहा कि यदि दूसरे भाई द्वारा दूसरी ओर की ऊन भी काट ली जाती तो भेड़ का संतुलन बना रहता और वह नाले में न गिरतीा मामला अदालत में पहुँच गयाा जब तक मुकदमा समाप्‍त हुआ, तब तक दोनों भाइयों की सारी भेड़ें बिक चुकी थींा

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

पंडित नेहरु की हाज़िरजवाबी

एक बार पंडित नेहरु स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन के दौरान तमाम सत्याग्रहियों के साथ जेल में बंद थे. जेल में कैदियों को खाने में जो रोटी मिलती थी उसमे मिटटी मिली होती थी. कुछ सत्याग्रहियों ने इसकी चर्चा पंडित नेहरु से की. नेहरू जी ने जब जेलर से इस बात की शिकायत की तो जेलर ने व्यंग्य भरे लहजे मे उत्तर दिया, "आप लोग यहाँ मातृभूमि की सेवा करने आते हैं, इस तरह की शिकायतें करने नहीं."  पंडित नेहरू ने जो उत्तर दिया,  उससे उनकी हाज़िरजवाबी और देशप्रेम का एक साथ परिचय मिलता है. उन्होंने कहा, "जनाब, आपको भी मालूम होना चाहिए कि हम यहाँ मातृभूमि की सेवा करने आते हैं उसे खाने नहीं."

रविवार, 7 नवंबर 2010

मजेदार इबारतें

ट्रकों, बसों, और ऑटो के पीछे लिखी शेरो-शायरी, इबारतें वगैरह पढने का अलग ही मज़ा है। कई बार ऐसी नयी चीज़ पढने को मिल जाती है की आप वाह किये बिना नहीं रह सकते। आज ही कुछ काम से चारबाग जा रहा था। कि अपने आगे चाल रहे एक ऑटो के पीछे लिखी यह लाइन मुझे हंसा गयी -

'Capacity - 3 Idiots'

क्यूँ है न मज़ेदार इबारत।

- घनश्याम मौर्य

सोमवार, 18 जनवरी 2010

साहित्य सृजन

चाहत है मेरी, मैं भी कुछ आरम्भ करूं साहित्य सृजन।
गीतों कविताओं की माला या कथा-कहानी, आलोचन।
देखा है, सुना, पढ़ा भी है, अनुभव कुल मेरा यही रहा।
दायरा संकुचित पहले-सा साहित्य सृजन का नहीं रहा।
साहित्य नाम पर अब कुछ भी लिख दो, सब चलता-बिकता है।
जिसके लेखन में हो विवाद, बस वही यहाँ पर टिकता है।
लेखन का विषय भले कुछ हो, सादगी न हो बस ध्यान रहे।
भरपूर मसाला हो उसमे, अभिमान और अपमान रहे।
इस बहती गंगा में, मैं भी क्यों हाथ न अपने धोऊंगा?
आदर्श सृजन के चक्कर में क्यों निरा मूर्ख बन रोऊंगा?
दो-चार विवादित रचनाएँ लिखकर चर्चित हो जाऊंगा।
पैसा, रोयल्टी, जग-प्रसिद्धि, कुछ तमगे भी पा जाऊंगा।
कुछ चाटुकारिता के बल पर पत्रिका और अख़बारों में।
कुर्सी कोई मिल जायेगी जब सत्ता के गलियारों में।
वह दिन मेरे साहित्य सृजन का सबसे मीठा फल होगा।
साहित्यकार बनना मेरा वास्तव में तभी सफल होगा।

--- घनश्याम मौर्य

सोमवार, 14 जुलाई 2008

Guide To Marketing

1. You see a gorgeous girl at a party. You go up to her and say: "I am very rich. Marry me!" - That's Direct Marketing
2. You're at a party with a bunch of friends and see a gorgeous girl. One of your friends goes up to her and pointing at you says: "He's very rich. Marry him." - That's Advertising
3. You see a gorgeous girl at a party. You go up to her and get her telephone number. The next day, you call and say: "Hi, I'm very rich. Marry me." - That's Telemarketing
4. You're at a party and see gorgeous girl. You get up and straighten your tie, you walk up to her and pour her a drink, you open the door (of the car) for her, pick up her bag after she drops it, offer her ride and then say: "By the way, I'm rich. Will you marry me?" - That's Public Relations
5. You're at a party and see gorgeous girl. She walks up to you and says: "You are very rich! Can you marry me?" - That's Brand Recognition
6. You see a gorgeous girl at a party. You go up to her and say:
I am very rich. Marry me!" She gives you a nice hard slap on your face. - That's Customer Feedback

7. You see a gorgeous girl at a party. You go up to her and say:
"I am very rich. Marry me!" And she introduces you to her husband. - That's Demand and Supply Gap

8. You see a gorgeous girl at a party. You go up to her and before
you say anything, another person come and tell her: "I'm rich. Will you marry me?" and she goes with him - That's competition eating into your market share

9. You see a gorgeous girl at a party. You go up to her and before you say: "I'm rich, Marry me!" your wife arrives. - That's restriction for entering new markets.

सोमवार, 19 मई 2008

महान हस्तियों के प्रेरक प्रसंग

अकबर इलाहाबादी एक मशहूर शायर होने के साथ साथ एक सरकारी मुलाजिम भी थे। उनके घर अक्सर कई लोगों का आना जाना लगा रहता था। एक बार एक सज्जन उनके घर मिलने आए। अकबर उस समय जनानखाने में थे। उन सज्जन ने अपना कार्ड अन्दर भिजवाया जिस पर उनका नाम और पता तो लिखा ही था पर नाम के बगल में बीए कलम से लिखा हुआ था। अकबर साहब ने जब कार्ड देखा तो उनको उन महाशय की यह हरकत बड़ी नागवार गुजरी। वे बाहर नहीं आए बल्कि कार्ड के पीछे यह लिख कर भिजवा दिया-

शेख जी घर से न निकले और ऐसे लिख दिया,
आप बी-ए- पास हैं तो में भी बीवी पास हूँ।

शुक्रवार, 30 नवंबर 2007

हास्य कविता

मानुष हों तो बसों इंग्लैंड में, गोरे मनुज जह कोऊ न कारे।
शीत दुपहरी सागर तट पे धुप चखों निज वस्त्र उतारे।
रात कटे क्लब डिस्को में अरु खेल विविध दिन के उजियारे।
मोटर पे निक्सो घर सों बुलडाग चलें संग पुँछ निकारे।