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सोमवार, 2 मई 2011

टाइपराइटर टिप टिप टिप अब नहीं करेगा

टाइपराइटर की टिप-टिप अब नहीं सुनाई देगी। गोदरेज एण्‍ड बॉयस कम्‍पनी जो इस समय विश्‍व में टाइपराइटर का उत्‍पादन करने वाली एकमात्र कम्‍पनी है, उसने इसका उत्‍पादन बन्‍द करने की घोषणा की है। इसे टाइपराइटर के युग के अन्‍त की औपचारिक घोषणा माना जा सकता है। कम्‍प्‍यूटर की बहु-आयामी उपयोगिता ने बहुत पहले से ही टाइपराइटर के अस्तित्‍व को खतरे में डाल दिया था। किन्‍तु भारत में अभी भी न्‍यायालयों तथा अन्‍य तमाम विभागों में टाइपराइटर के प्रयोग तथा प्रतियोगी परीक्षाओं में टाइपराइटर के उपयोग के कारण इसकी थोड़ी बहुत मॉग बनी हुई थी। किन्‍तु अब दूसरी तमाम पुरानी तकनीकों की तरह टाइपराइटर भी गुजरे जमाने की बात हो जायेगी। नयी पीढ़ी के लिये तो यह पहले ही एक 'एन्‍टीक पीस' की तरह है जिसे शायद छूने का मौका भी उन्‍हें नहीं मिला होगा। लेकिन वहीं दूसरी ओर टाइपराइटर लाखों लोगों के लिए एक अरसे तक रोजगार का जरिया बना रहा।

टाइपराइटर का आविष्‍कार 1867 ई0 में हुआ था। यूँ तो इसके आविष्‍कार एवं विकास में कई लोगों का योगदान रहा है, लेकिन इसके अ‍ाविष्‍कारक के तौर पर क्रिस्‍टोफर सोल्‍स का नाम लिया जाता है। टाइपराइटर के आविष्‍कार के बाद लेखकों की तो चॉंदी हो गयी और कार्यालयों भी इसकी मॉंग बढ़ गयी। यह लोगों के रोजगार का जरिया बन गया। आज भी हमारे देश में तमाम सरकारी कार्यालयों में इसका इस्‍तेमाल हो रहा है हालांकि धीरे धीरे सभी जगह कम्‍प्‍यूटर का वर्चस्‍व हो गया है। 

मेरे जैसे लोगों के लिए टाइपराइटर युग का अन्‍त किसी पुराने साथी के बिछड़ने जैसा है। मैं पेशे से वैयक्तिक सहायक हूँ और अपनी परीक्षा की तैयारी करते समय मैनें इस पर काफी टिप-टिप की थी। रेमिंग्‍टन का टाइपराइटर मेरा पसंदीदा मॉडल हुआ करता था। मुझे आज भी याद है, 30 जून, वर्ष 2000 का वो दिन जब मेरी स्‍टेनोग्राफी परीक्षा बनारस के उदय प्रताप इण्‍टर कालेज में होनी थी। यह परीक्षा कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित थी। परीक्षा के नियमों के अनुसार परीक्षार्थियों को अपना टाइपराइटर स्‍वयं लाना होता था। लखनऊ से मैं अपना पसंदीदा रेमिंग्‍टन का टाइपराइटर परीक्षा के लिये भाड़े पर ले गया था। चिलचिलाती गर्मी में 20 किलो वजनी टाइपराइटर को कंधे पर रखकर फुट ओवर ब्रिज से होकर स्‍टेशन से बाहर निकलना माउण्‍ट एवरेस्‍ट फतेह करने जैसा अभियान लग रहा था। स्‍टेशन पर कुली मौजूद थे, लेकिन एक तो मेरी विवशता को भॉंप कर वह तिगुना चौगुना दाम मांग रहे थे, दूसरे मुझे यह डर था कि वह न जाने किस लापरवाही से टाइपराइटर को पकड़े कि उसका कोई कलपुर्जा खराब हो जाये। उस समय उस मशीन पर ही मेरा भविष्‍य निर्भर था और वह मुझे प्राणों सी प्रिय थी। खैर, मैनें परीक्षा भली प्रकार दी और मेरी लोहे की टिपिर-टिपर मशीन ने मेरा खूब साथ निभाया । संयोग से मेरी नियुक्ति ऐसे विभाग में हुई जहां कम्‍प्‍यूटरों का आधिपत्‍य था। तबसे टाइपराइटर का साथ जो छूटा, तो हमेशा के लिये छूट गया।

लेकिन इधर जब अखबारों में टाइपराइटर युग के अन्‍त की खबर पढ़ी तो 'नोस्‍टैल्जिक' हो गया। लेकिन हम प्रौद्योगिकी को लेकर भावुक नहीं हो सकते। यह नित नये रूप और आकार में हमारे सामने प्रस्‍तुत होती रहती है। इसलिए किसी एक रूप या आकार के साथ हम शाश्‍वत संबंध नहीं रख सकते। खैर, कम्‍प्‍यूटर का की बोर्ड जो टाइपराइटर पर ही आधारित है, हमें इस 'एन्‍टीक पीस' की याद दिलाता रहेगा जब तक कि कम्‍प्‍यूटर खुद किसी नयी प्रौद्योगिकी द्वारा प्रतिस्‍थापित नहीं कर दिया जाता।

फिलहाल, टाइपराइटर के दिनों की याद ताजा करने के लिए आप यह गाना सुनिए 'टाइपराइटर टिप टिप टिप करता है'। फिल्‍म है 'बॉम्‍बे टॉकीज'और गायक हैं किशोर दा और आशा भोंसले -



रविवार, 1 मई 2011

हैप्‍पी बर्थडे मन्‍ना दा - (दिन भर धूप का परबत काटा, शाम को पीने निकले हम)

आज हिन्‍दी फिल्‍मों के मशहूर पार्श्‍व गायक मन्‍ना डे साहब का जन्‍म दिन है। उनके जन्‍म दिन पर उन्‍हें हार्दिक शुभकामनाएं। मैं मन्‍ना दा के गानों को बचपन से बड़े चाव से सुनता रहा हूँ। वे मोहम्‍मद रफी की तरह वर्सेटाइल गायक थे। शायद उन्‍हीं की टक्‍कर के। सेमी-क्‍लासिकल गानों में तो उनका कोई जवाब ही नहीं था। फिल्‍म रानी रूपमती का 'उड़ जा भंवर माया कमल' और फिल्‍म तलाश का 'तेरे नैना तलाश करें जिसे' जैसे गानों को कौन भूल सकता है। लेकिन उन्‍होंने 'आओ ट्विस्‍ट करें' और 'ऐ भाई जरा देख के चलो' जैसे हल्‍के फुल्‍के गाने और 'यारी है ईमान मेरा' जैसी कव्‍वालियां भी गाईं। रफी साहब और मन्‍ना दा में अधिक फासला नहीं था लेकिन जैसा कि मन्‍ना दा ने स्‍वयं एक बार दूरदर्शन के एक इण्‍टरव्‍यू में कहा था, 'नम्‍बर वन बनने के लिए जो चाहिए था, वह शायद मुझमें नहीं था।' मन्‍ना दा को अपने कैरियर में अनेक सम्‍मान मिले। अभी हाल ही में उन्‍हें वर्ष 2008 के दादा साहब फाल्‍के पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया था। साल-डेढ़ साल पहले ही उनकी आत्‍मकथा 'मेमोरीज कम अलाइव' भी प्रकाशित होकर आई है।

यहॉं मैं मन्‍ना दा द्वारा गायी हुई एक गजल प्रस्‍तुत कर रहा हूँ। यह फिल्‍म 'शायद' से है, जो सन 1979 में रिलीज हुई थी। फिल्‍म के संगीतकार थे मानस मुखर्जी जो आज के मशहूर पार्श्‍व गायक शान के पिता थे। यह गजल शायद आपमें से बहुतों ने नहीं सुनी होगी। सुनिये और आनन्‍द लीजिए- 

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

स्‍साला एक मच्‍छर आदमी को हिजड़ा बना देता है

''स्‍साला एक मच्‍छर आदमी को हिजड़ा बना देता है।'' फिल्‍म 'यशवन्‍त' में नाना पाटेकर का बोला गया यह संवाद खूब लोकप्रिय हुआ था। तारीफ करनी चाहिए संवाद लेखक की सोच की जिसने मच्‍छर और इंसान के बीच के रिश्‍ते को नजर में रखते हुए यह संवाद लिखा। 

वैसे इस संवाद को थोड़ा गहरे अर्थ में लें तो यह असल जिन्‍दगी में भी सही साबित होता है और शायद आगे भी होता रहेगा। दरअसल अभी कुछ दिनों पहले ही विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की जो रिपोर्ट आई है उसके अनुसार दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में मलेरिया रोग की रोकथाम के लिए पिछले दशक में जो प्रयास किये गये हैं उसके कारण मलेरिया के मरीजों की संख्‍या में कमी आई है लेकिन इसका दुष्‍प्रभाव यह हुआ है कि इस दौरान इस्‍तेमाल की गयी तमाम मलेरिया रोधक दवाओं और रसायनों के प्रति मच्‍छरों ने प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। मलेरिया की प्रमुख कारगर दवा आर्टीमिसीन के प्रति मच्‍छर अधिक प्रतिरोधक हो गये हैं और अब उन पर इस दवा का वह असर नहीं हो रहा जो पहले होता था। 

यह कोई नयी बात नहीं है। इंसान के आस पास के वातावरण में और उसके दैनिक जीवन में जिन प्राणियों से उसका सामना  होता है, मच्‍छर उनमें से एक है। चूहे, छिपकली, कॉकरोच, मक्‍खी, मच्‍छर जैसे जीव न जाने कितने शताब्दियों से हमारे घरों में डेरा जमाते रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि इनमें से कॉकरोच और मच्‍छर सर्वाधिक प्रतिरोधक क्षमता वाले जीव हैं। मच्‍छरों के प्रकोप से बचने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा  अब तक न जाने कितनी दवायें, छिड़काव वाले रसायन, धूमक इत्‍यादि बनाये गये लेकिन मच्‍छर जैसा ढीठ जीव है कि हार मानने को तैयार ही नहीं। हर बार वह नयी प्रतिरोध क्षमता के साथ इंसान का खून चूसने को तैयार रहता है। मॉस्‍कीटो कॉयल से लेकर एन्‍टी-मॉस्‍कीटो वेपोराजइर और मसहरी जैसे तमाम जतन करके हम देख चुके हैं। लेकिन मच्‍छर है कि मानता ही नहीं। किसी न किसी तरह मसहरी के अन्‍दर भी मौका लगने पर घुस ही जाता है, मानों कसम खा रखी हो कि तुम कितना भी कर लो, मैं तो तुम्‍हारा खून चूस के रहूँगा। 

मशहूर अंग्रेज लेखक ए.जी. गार्डिनर का लेख 'The Fellow Traveller' याद आ गया। रेलगाड़ी के एक डिब्‍बे में अकेला बैठा लेखक और उसे रास्‍ते भर परेशान करता डिब्‍बे में उड़ता एक मच्‍छर। तमाम कोशिशों के बावजूद लेखक उस मच्‍छर को मार नहीं पाता। अन्‍त में वह स्‍वीकार करता है कि इंसान और मच्‍छर एक दूसरे के हमसफर हैं जो इस जीवनयात्रा में एक दूसरे का  साथ निभाने के लिये धरती पर आये हैं। 

हम भले ही अपने आपको दुनिया का सर्वश्रेष्‍ठ प्राणी कहते हों, लेकिन मच्‍छर जैसे छोटे जीव की प्रतिरोधक क्षमता हमारे तमाम अनुसंधानों, तमाम आविष्‍कारों, तमाम कोशिशों पर भारी पड़ रही है। शायद यही सब सोचकर संवाद लेखक ने यह डॉयलॉग लिखा था।