गुरुवार, 6 मई 2010

हारना मुझको नहीं स्वीकार है.

इस कदर हर रास्ता पुरखार है।
मंजिल-ऐ- मक़सूद हद के पार है।

आशियाँ की छत बनाता हूँ मगर,
बादलों की उठ रही हुंकार है।

सौ बहाने हैं मददगारों के भी,
हर बहाने में छुपा इंकार है।

हर तरफ है स्याह अँधियारा मगर,
मुझको दिखता रौशनी का द्वार है।

जिस्म मैंने कर लिया फौलाद का,
रूह मेरी और भी बेदार है।

है इरादा भी अटल चट्टान-सा
हारना मुझको नहीं स्वीकार है।