यूँ ही घर में न तुम बैठे रहो।
कभी बाहर भी तो निकला करो।
न पत्थर की तरह निर्मम बनो,
कभी थोडा-सा तो पिघला करो।
ज़रा-सा सब्र करना सीख लो,
न यूँ हर बात में मचला करो।
तुम्हारा घर कहाँ ढूंढेंगे हम,
यूँ आये दिन न घर बदला करो।
नहीं हो सांप तुम इंसान हो,
किसी पर ज़हर मत उगला करो।
3 टिप्पणियां:
ati sundar
खूबसूरत अभिव्यक्ति...
तुम्हारा घर कहाँ ढूंढेंगे हम,
यूँ आये दिन न घर बदला करो।
इस पर एक कविता की पंक्ति याद आई...
एक पुराने दुःख ने पूछा
साथी कहो कहाँ रहते हो
उत्तर मिला चले मत आना
वो घर मैंने बदल दिया है
वाह! बहुत सुन्दर रचना है!
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