गुरुवार, 20 मई 2010

यूँ ही घर में न तुम बैठे रहो.

यूँ ही घर में न तुम बैठे रहो।
कभी बाहर भी तो निकला करो।
न पत्थर की तरह निर्मम बनो,
कभी थोडा-सा तो पिघला करो।
ज़रा-सा सब्र करना सीख लो,
न यूँ हर बात में मचला करो।
तुम्हारा घर कहाँ ढूंढेंगे हम,
यूँ आये दिन न घर बदला करो।
नहीं हो सांप तुम इंसान हो,
किसी पर ज़हर मत उगला करो।

3 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

ati sundar

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

खूबसूरत अभिव्यक्ति...

तुम्हारा घर कहाँ ढूंढेंगे हम,
यूँ आये दिन न घर बदला करो।

इस पर एक कविता की पंक्ति याद आई...

एक पुराने दुःख ने पूछा
साथी कहो कहाँ रहते हो
उत्तर मिला चले मत आना
वो घर मैंने बदल दिया है

nilesh mathur ने कहा…

वाह! बहुत सुन्दर रचना है!