धूप से जलती ज़मीं बेकरार कब से है।
खेत को बारिशों का इंतज़ार कब से है।
कोई उसकी कराह को नहीं सुनने वाला,
घर के कोने में वो बूढी बीमार कब से है।
सड़क के मोड़ पर हर रोज़ खड़ा मिलता है,
वो नौजवान यूँ बेरोजगार कब से है।
दिन तो ढलने को है पर भीड़ कम नहीं होती,
राशनों की दुकान पे कतार कब से है।
सैकड़ों अर्जियां देकर थके हैं मुखिया जी,
गाँव के पास बांध में दरार कब से है.
- घनश्याम मौर्य
1 टिप्पणी:
sahab mushkilein aati hai to chappar faad ke...isiliye gareeb ka chhappar fata hi rehta hai...
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