बुधवार, 24 मार्च 2010

ज़िन्दगी को मौत से बदतर बनाता आदमी.

ज़िन्दगी को मौत से बदतर बनाता आदमी।
और फिर करता शिकायत, तिलमिलाता आदमी।
दिन-ब-दिन बढती हुई इंसानियत की भीड़ में,
ठोकरें खाता हुआ दामन बचाता आदमी।
सुबह से लेकर अँधेरी रात भागमभाग में,
ऐश और आराम के साधन जुटाता आदमी।
जाने पहचाने से चेहरों में किसी को ढूंढता,
और फिर तन्हाइयों में डूब जाता आदमी।
कभी तो पीता ज़हर धोखे दवा-ए -दर्द के,
और कभी खुद ही ज़हर होठों लगाता आदमी।
दोस्ती, यारी, वफ़ा, वादों को मतलब के लिए,
तोड़कर फिर से नए रिश्ते बनाता आदमी.
- घनश्याम मौर्य

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