चुनावों का मौसम करीब आ गया है।
ज़मीं से फलक पर गरीब आ गया है।
वो चाहे हो एक्टर, प्रोफेसर, गैंगस्टर,
परखने को अपना नसीब आ गया है।
मचलते हैं अरमां, बदलते हैं रिश्ते,
बग़ावत का मौसम अजीब आ गया है।
अभी तक जिसे यार कहते थे अपना
उसी की जगह पर रकीब आ गया है।
लटकने को तैयार है फिर से वोटर
वो काँधे पे लेकर सलीब आ गया है।
ज़मीं से फलक पर गरीब आ गया है।
वो चाहे हो एक्टर, प्रोफेसर, गैंगस्टर,
परखने को अपना नसीब आ गया है।
मचलते हैं अरमां, बदलते हैं रिश्ते,
बग़ावत का मौसम अजीब आ गया है।
अभी तक जिसे यार कहते थे अपना
उसी की जगह पर रकीब आ गया है।
लटकने को तैयार है फिर से वोटर
वो काँधे पे लेकर सलीब आ गया है।
2 टिप्पणियां:
बिल्कुल सही है साहब....
वोटर तो बस बेचारा रह जाता है ...
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