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गुरुवार, 9 मई 2019

यह न समझ अनजान हैं लोग

यह न समझ अनजान हैं लोग
चुप हैं, नहीं बेजान हैं लोग 

इनको हाँक न पाओगे,
ढोर  नहीं, इंसान हैं लोग 

कौड़ी  में बिक जाएंगे,
इतने बेईमान हैं लोग?

आपस में लड़वाओगे,
क्या समझे, हैवान हैं लोग?

नज़रें तुमको परख रहीं ,
चौकी नहीं, मचान हैं लोग 

लोगों की ही बात करो,
भीड़ नहीं, भगवान् हैं लोग 

शनिवार, 27 सितंबर 2014

तुमसे मिलने के बहाने तलाशने होंगे



तुमसे मिलने के बहाने तलाशने होंगे।
फिर से वो ठौर सुहाने तलाशने होंगे।
        
हमारी आशिकी परवान चढ़ी थी जिनसे,
तमाम ख़त वो पुराने तलाशने होंगे।

हमारे दरमियां क्‍यूँ सर्द सी खामोशी है,
हमको इस दूरी के माने तलाशने होंगे।

शुरू हो दौर फिर से गुफ्तगू का मेरे सनम,
हमें कुछ ऐसे फ़साने तलाशने होंगे।

सफ़र के बीच हमें छोड़ के जो चल दोगे,
उदास दिल को मयख़ाने तलाशने होंगे।

शनिवार, 20 सितंबर 2014

शहर बीमार हूँ मैं हॉफता हूँ

गूगल चित्र से साभार
 
हजारों मील हर दिन नापता हूँ।
कभी कायम, कभी मैं लापता हूँ।।

मैं सपनों का उमड़ता इक भँवर हूँ,
तरक्‍की या तबाही का पता हूँ।

है किसमें कितनी हिम्‍मत, कितनी कुव्‍वत,
मैं सबको तोलता हूॅं, भॉंपता हूँ।

मैं कातिल हूँ, लुटेरा हूँ, गदर हूँ,
कहर बन सबके दिल में कॉंपता हूँ।

धुऑं हूँ, शोरगुल हूँ, जिस्‍म-ओ-जॉं तक,
शहर बीमार हूँ मैं, हॉंफता हूँ।

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

लबों पे बोल नहीं, पर ज़ुबान रखता हूँ।

लबों पे बोल नहीं पर जु़बान रखता हूँ।
चुके हैं तीर मगर मैं कमान रखता हूँ।

किसी तरह भी मयस्‍सर हो पेट को रोटी,
सुबह से शाम हथेली पे जान रखता हूँ।

कभी कहीं भी खु़द को ओढ़ता बिछाता हूँ,
मैं अपने साथ ही अपना मकान रखता हूँ।

जहॉं भी जाऊँ सवालों के वार होते हैं,
मैं अपने चेहरे पे अपना बयान रखता हूँ।

यही गु़मान है खाकी को मैं ही मुजरिम हूँ,
बकौल खादी मैं वोटों की खान रखता हूँ।

परों ने छोड़ दिया फड़फड़ाना पिंजरे में,
मैं बेकरार हूँ अब भी उड़ान रखता हूँ।

जहां की ठोकरों ने हौसला दिया है मुझे,
मैं अपनी ठोकरों में ये जहान रखता हूँ।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

तबीयत शायराना हो रही है



तबीयत शायराना हो रही है।
मोहब्‍बत एक बहाना हो रही है।

जुबॉं को खोलने से डर रहा हूँ,
कलम मेरा फ़साना ढो रही है।

तुझे सुनने की चाहत अब तो ख़ुद ही,
लगा कोयल का गाना हो रही है।

उमड़ती है मेरे अश्‍कों की गंगा,
करम मेरा पुराना धो रही है।

वो बोले शेर अपने मत पढ़ो तुम,
मोहब्‍बत अब निशाना हो रही है।

बुधवार, 26 मार्च 2014

चुनावों का मौसम करीब आ गया है।

चुनावों का मौसम करीब आ गया है।
ज़मीं से फलक पर गरीब आ गया है।

वो चाहे हो एक्टर, प्रोफेसर, गैंगस्टर,
परखने  को अपना नसीब आ गया है।

मचलते हैं  अरमां,  बदलते हैं रिश्ते,
बग़ावत  का  मौसम अजीब आ गया है।

अभी तक जिसे यार कहते थे अपना
उसी की  जगह पर रकीब आ गया है।

लटकने को तैयार  है फिर से वोटर
वो काँधे  पे  लेकर सलीब आ गया है।