लबों पे बोल नहीं पर जु़बान रखता हूँ।
चुके हैं तीर मगर मैं कमान रखता हूँ।
किसी तरह भी मयस्सर हो पेट को रोटी,
सुबह से शाम हथेली पे जान रखता हूँ।
कभी कहीं भी खु़द को ओढ़ता बिछाता हूँ,
मैं अपने साथ ही अपना मकान रखता हूँ।
जहॉं भी जाऊँ सवालों के वार होते हैं,
मैं अपने चेहरे पे अपना बयान रखता हूँ।
यही गु़मान है खाकी को मैं ही मुजरिम हूँ,
बकौल खादी मैं वोटों की खान रखता हूँ।
परों ने छोड़ दिया फड़फड़ाना पिंजरे में,
मैं बेकरार हूँ अब भी उड़ान रखता हूँ।
जहां की ठोकरों ने हौसला दिया है मुझे,
मैं अपनी ठोकरों में ये जहान रखता हूँ।
चुके हैं तीर मगर मैं कमान रखता हूँ।
किसी तरह भी मयस्सर हो पेट को रोटी,
सुबह से शाम हथेली पे जान रखता हूँ।
कभी कहीं भी खु़द को ओढ़ता बिछाता हूँ,
मैं अपने साथ ही अपना मकान रखता हूँ।
जहॉं भी जाऊँ सवालों के वार होते हैं,
मैं अपने चेहरे पे अपना बयान रखता हूँ।
यही गु़मान है खाकी को मैं ही मुजरिम हूँ,
बकौल खादी मैं वोटों की खान रखता हूँ।
परों ने छोड़ दिया फड़फड़ाना पिंजरे में,
मैं बेकरार हूँ अब भी उड़ान रखता हूँ।
जहां की ठोकरों ने हौसला दिया है मुझे,
मैं अपनी ठोकरों में ये जहान रखता हूँ।
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बढि़या ग़ज़ल !
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