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बुधवार, 4 मई 2016

मुझको मेरी नज़र से ही गिरा रहे हैं लोग।

मुझको मेरी नज़र से ही गिरा रहे हैं लोग।
मैं देखता हूँ बौने होते जा रहे हैं लोग।

सूरज से धूप छीनकर मेरे हिसाब की,
मुझको ही रोशनी दिखा भरमा रहे हैं लोग।

चरखा थमा के मुझको, मेरा तन उघाड़कर,
मेरी ही खादी पहन के इतरा रहे हैं लोग।

मुझको बता के क़ायदे उपवास के हज़ार,
मेरी फसल की दावतें उड़ा रहे हैं लोग।

अपने करम से उनके मुकद्दर संवर गये,

पर आज हमीं पर करम फ़रमा रहे हैं लोग।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

मिल गये दिल तो कैसी दूरी है

मिल गये दिल तो कैसी दूरी है।
इश्‍क को हुस्‍न की मंजूरी है।

अब तो हर सांस कह रही है यही,
बिन तेरे जिन्‍दगी अधूरी है।

हर तरफ तीर सी निगाहें हैं,
प्‍यार की राह में मजबूरी है।

मिलेगी मंजिल-ए-मकसूद तुझे,
यकीन-ओ-हौसला जरूरी है।

जिसकी खुशबू से बच सका न कोई,
प्‍यार तो ऐसी ही कस्‍तूरी है।
 

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

ग़ज़ल

पनाह लेने को दर हों कई तो अच्छा है,
सफ़र के वास्ते बस एक नाव काफी है।
गरम लिहाफ जो होते तो बात ही क्या थी,
फिलहाल अपने लिए एक अलाव काफी है।
मेरे इस जिस्म को तू यूँ लहूलुहान न कर,
जान लेने को दिल पे एक घाव काफी है।
राह में हों कई चक्कर ये बात ठीक नहीं,
मज़े के लिए सिर्फ एक घुमाव काफी है।
चलो चलें ये है इंसानी कौवों की महफ़िल,
जो इतनी देर सुनी कांव-कांव काफी है।
- घनश्याम मौर्य