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रविवार, 10 अप्रैल 2011

गुरुदेव की 'गीतांजलि' से


मुक्‍त मन-मस्तिष्‍क हो भय से जहॉं,
गर्व से उन्‍नत जहॉं पर भाल हो।
ज्ञान भी उन्‍मुक्‍त मिलता हो जहॉं,
जाति मजहब का न कोई सवाल हो।
शब्‍द निकलें सत्‍य के ही गर्भ से
श्रेष्‍ठता को हर कोई तैयार हो।
तर्क ही आधार हो स्‍वीकार का,
रूढि़यों से मुक्‍त जन-व्‍यवहार हो।
देशवासी सब प्रगति पथ पर बढ़ें,
शान्ति, उन्‍नति, प्रेम के आसार हों।
हे प्रभू, लेकर तुम्‍हारी प्रेरणा,
स्‍वर्ग ऐसा देश में साकार हो।

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

सच्ची प्रसन्नता का रहस्य

 सर हेनरी वाटन की कविता 'Characters Of A Happy Life' उ.प्र. बोर्ड की इंटरमीडिएट कक्षा में पढ़ी थी और उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ. सीधे सरल शब्दों में रची गयी यह कविता एक वास्तविक सुखी जीवन के रहस्य को बयां करती है. आज इतने बरसों बाद भी यह कविता मेरे जेहन में बसी हुई है. इस  कविता का मैंने भावानुवाद करने का प्रयास किया है. आशा है पाठकों को पसंद आएगा. उक्त भावानुवाद को पढने के लिए कृपया नीचे लिंक पर जाएँ -






बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कवियों का कैसा हो बसंत

कवियों का कैसा हो बसंत

कवि कवयित्री कहतीं पुकार
कवि सम्मलेन का मिला तार
शेविंग करते, करती सिंगार
देखो कैसी होती उड़न्त
कवियों का कैसा हो बसंत
छायावादी नीरव गाये
ब्रजबाला हो, मुग्धा लाये
कविता कानन फिर खिल जाए
फिर कौन साधु, फिर कौन संत
कवियों का ऐसा हो बसंत
करदो रंग से सबको गीला
केसर मल मुख करदो पीला
कर सके न कोई कुछ हीला
डुबो सुख सागरमें अनंत
कवियों का ऐसा हो बसंत

(सुभद्राकुमारी चौहान की कविता 'वीरों का कैसा हो बसंत' की पैरोडी)
रचनाकार : बेढब बनारसी

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

'गुदड़ी के लाल' की कविता 'हॉंथी तौ आपनि चाल चली'

जिउ भीतर ते तौ धुक्‍कु-पुक्‍कु, मुलु  ऊपर ते हैं बने बली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।

भालू होइगें चालू एतना, अपसै मा झगरे मरत हवैं।
चउतरफा चाटि-चाटि चटनी, चउकड़ी चउगड़ा भरत हवैं।
गदद्न पर ल्‍वाटैं मालु छानि, ई गदहन के हैं दिन बहुरे।
हीरा तजि, जीरा कै चोरी, सब उँट करैं निहुरे-निहुरे।

अब हमना बइठब गुप्‍पु-सुप्‍पु, नाहीं तौ इनकै नेति फली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


सब बैल छैल बनि गैल-गैल, सींघन ते सैल बझेलि रहे।
बग्‍घी का छाडि़ उतारि जीन, घ्‍वाड़ा सुरबग्‍घी खेलि रहे।
खाल सेर कै पहिर-पहिरि, बहुतेरे सियार हैं आये।
खउख्‍‍यानि बँदरवा एकजुट हवै, मुलु बारु न बॉंका कइ पाये।

सब मरिगें नकुना घिस्सि-घिस्सि, मुलु कबौ न याकौ दालि गली।
कइ लियैं कुकरवा भुक्‍कु-भुक्‍कु, हॉंथी तौ आपनि चाल चली।


(अवधी भाषा के प्रसिद्ध कवि 'गुदड़ी के लाल' उर्फ गुरु चरण लाल के कविता संग्रह 'छुटटा हरहा' से)