एक सरकारी महकमे में एक अधिकारी नये-नये ट्रान्सफर होकर आये थे। उन्हें कॉलबेल बजाने की बहुत बीमारी थी। कई बार वह यों ही बिना बात कॉलबेल बजाते और जब चपरासी हाजिर होता तो कहते, ’’काम तो कुछ नहीं है। मैं तो केवल चेक कर रहा था कि तुम ड्यूटी पर मौजूद हो कि नहीं।’’ उनकी इस आदत से ऑफिस के सारे लोग तंग आ चुके थे। बार बार घण्टी बजने से सबका ध्यान भंग होता था और झुंझलाहट भी होती थी, पर साहब से इस बारे में कुछ कहने की हिम्मत किसी में न थी। आखिरकार जब पानी सर से ऊपर हो गया तो सभी कर्मचारियों ने मिलकर एक तरकीब सोची। एक दिन वह साहब जब अपने चैम्बर में एक बहुत जरूरी काम में व्यस्त थे, तब चपरासी बार-बार जाकर दरवाजा खोलकर झांकता और वापस चला जाता। अंत में परेशान होकर साहब ने उसे बुलाया और डंपटते हुए पूछा, ’’तुम्हें ऑफिस मैनर्स पता नहीं हैं? बिना बुलाये बार-बार कमरे में झांक कर क्यों जाते हो?’’ चपरासी ने नरम स्वर में जवाब दिया, ’’कुछ नहीं साहब, मैं देख रहा था कि आप ड्यूटी पर मौजूद हैं या नहीं।’’ यह सुनते ही अधिकारी महोदय को शायद अपना खुद का जुमला याद आ गया। उस दिन से उन्होंने बिना बात कॉलबेल बजाने की आदत से तौबा कर ली।
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रविवार, 4 दिसंबर 2011
बुधवार, 31 अगस्त 2011
मेरे घर आई एक नन्हीं परी
यह संयोग की बात है कि मेरी पिछली पोस्ट 31 जुलाई को प्रकाशित हुई और आज 31 अगस्त को में वापस ब्लॉग पर आ रहा हूँ। इतने दिन ब्लॉग से अनुपस्थित रहने का कारण बहुत ही खुशनुमा है। दरअसल 1 अगस्त को सुबह 8;56 बजे मैं एक नन्हीं सी प्यारी सी बेटी का पिता बन गया। यह सौभाग्य मुझे दूसरी बार मिला है। इससे पहले यह खुशी 28 अप्रैल 2008 को आई थी जब मुझे एक पुत्र की प्राप्ति हुई थी। जन्म लेने के बाद से ही नवजात शिशु को लेकर जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। चूँकि सीजेरियन आपरेशन से पत्नी का प्रसव हुआ था, इसलिए जिम्मेदारियां और भी बढ़ गयीं। फिलहाल मैं तो एक नन्हीं परी का पिता होने का सुख उठा रहा हूँ, लेकिन साथ ही एक दूसरी समस्या भी खड़ी हो गयी है। मेरा तीन वर्षीय बेटा अपने को अलग-थलग महसूस करने लगा है और कुछ चिडचिडा भी हो गया है। इसलिए दो-दो बच्चों को एक साथ संभालना पड़ता है। लेकिन इसी का नाम तो जिन्दगी है, थोड़ी खट्टी थोड़ी मीठी। जल्द ही ब्लॉग पर जोश के साथ वापस लौटूँगा। तब तक आप नीचे मेरी नन्हीं परी की तस्वीर देखिये और बताइये कैसी लगी।
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सोमवार, 25 जुलाई 2011
मेरी 100वीं पोस्ट - आत्म मंथन
आज मैं अपने ब्लॉग की 100वीं पोस्ट लिख रहा हूँ। मुझे ब्लॉगिंग करते हुए चौथा वर्ष हो रहा है। वर्ष 2007 में जब 'कादम्बिनी' पत्रिका में बालेन्दु शर्मा दाधीच जी का लेख 'ब्लॉग हो तो बात बने' पढ़ा था, तो जोश में आकर अपना भी एक ब्लॉग बना डाला। लेकिन जैसा कि कई ब्लॉगरों के साथ होता है, ब्लॉग बनाकर और एक दो हल्की-फुल्की पोस्ट चिपकाकर शान्त बैठ गया। मेरी गलतफहमी थी कि दो चार पोस्ट लिखते ही ब्लॉगजगत में मशहूर हो जाऊँगा और दर्जनों टिप्पणियों की बरसात मेरी हर पोस्ट पर होने लगेगी। आज जब अपने ब्लॉग की शुरुआत की कुछ पोस्ट देखता हूँ तो उस समय की मेरी ब्लॉग लेखन संबंधी अपरिपक्वता का एहसास होता है। धीरे धीरे मुझे एहसास हुआ कि मैनें गलत कारणों से ब्लॉगिंग शुरू की है। ब्लागिंग सस्ती लोकप्रियता का साधन नहीं है, न ही इसे ऐसा बनाया जाना चाहिए। लेकिन एक चीज मैं ईमानदारी से कहना चाहूँगा कि मैनें सस्ती लोकप्रियता के लिए कभी भी ऊल-जलूल या विवादास्पद पोस्ट नहीं लिखी, जैसा कि कुछ ब्लॉगर कर रहे हैं। लेकिन मुझे ब्लाग लिखने के साथ साथ दूसरों के ब्लॉग पढ़ने में भी मजा आने लगा। पिछले कुछ समय से ब्लॉग लेखन के प्रति गम्भीरता और जागरुकता बढ़ने का कारण है इसका बढ़ती हुई उपादेयता के प्रति हर क्षेत्र में हो रही स्वीकारोक्ति। फिर वरिष्ठ ब्लॉगरों के अनुभवों और सुझावों को पढ़कर भी ज्ञानवर्द्धन हुआ।
इतने दिनों के ब्लागिंग के अनुभव के बाद कुछ बातें मैनें नोटिस की हैं जो आप सबके साथ बांटना चाहूँगा। पहली बात तो यह कि लोकप्रिय पोस्ट की सूची में सबसे ऊपर वही पोस्ट होती हैं जिनका शीर्षक ध्यानाकर्षक या रुचिकर होता है, लेकिन जरूरी नहीं कि उन्हें टिप्पणियां भी अधिक मिलें। टिप्पणियों की संख्या ब्लॉग में लिखी गयी सामग्री पर निर्भर करती है। दूसरी बात, कविताओं पर अधिक टिप्पणियां मिलती हैं। शायद इसलिये कि कविता लिखना और समझना गद्य की तुलना में सरल होता है। हालांकि आजकल की कविता भी बौद्धिक हो चली है। तीसरी बात, लम्बी पोस्ट को केवल वही पाठक पूरी तरह पढ़ते हैं जो उस विषय के प्रति विशेष रुचि रखते हैं। अन्यथा तमाम पाठक पूरी पोस्ट पढे बिना ही 'अच्छा है' , 'बढि़या रचना' जैसी टिप्पणियां दे देते हैं। चौथी बात, आम तौर पर महिला ब्लॉगरों के ब्लॉग पर अधिक टिप्पणियां आती हैं। कारण क्या है, मैं अभी तक समझ नहीं सका। पांचवीं बात, यदि आपका ब्लॉग किसी विषय विशेष या क्षेत्र विशेष की ही जानकारी निरन्तर उपलब्ध कराता है, तो उसके भविष्य उज्ज्वल होने की अधिक सम्भावना है और उस पर ब्लॉग ट्रैफिक निरन्तर बना रहता है। छठी बात, ब्लॉगिंग शुरू करना बहुत आसान है, लेकिन ब्लॉग लेखन में निरन्तरता बनाये रखना बहुत मुश्किल है। एक सीमा के बाद आदमी को निरर्थकता का बोध होने लगता है। यही वह समय है जब ब्लॉगर को सेल्फ-मोटिवेशन की जरूरत है। ब्लॉगिंग एक रचनात्मक कार्य है, इसे केवल आर्थिक लाभ और हानि के तराजू में तोलना उचित नहीं है। हालांकि हिन्दी ब्लॉगिंग की बढ़ती धमक को देखते हुए यह आशा की जा सकती है कि हिन्दी ब्लॉगरों को भी जल्द ही अंग्रेजी ब्लॉगरों की तरह कमाई होने लगेगी।
सच कहूँ तो पाठकों की टिप्पणियां प्राप्त करने की लालसा अब भी रहती है, लेकिन केवल यह जानने के लिए कि मेरी पोस्ट में क्या कमी थी और क्या अच्छाई। घटिया, बेढंगी और विवादास्पद पोस्ट न तो आज तक लिखी है, न ही कभी लिखूँगा ऐसा प्रण कर रखा है। जिस दिन ऐसा लगा कि ब्लॉगजगत में ऐसा किये बिना टिकना मुश्किल है, उस दिन ब्लागिंग से तौबा कर लूँगा। लेकिन फिलहाल मुझे ब्लागिंग का भविष्य उज्ज्वल ही दिख रहा है।
अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि इतने दिनों तक ब्लॉग जगत का जो स्नेह मुझे मिला है, उसके लिए सभी का आभारी हूँ और आगे भी आप सभी का स्नेहाकॉंक्षी रहूँगा। सन्देश के रूप में यही कहूँगा कि ब्लॉगिंग एक दुधारी तलवार है, इस इस्तेमाल सम्भाल कर करना चाहिए।
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गुरुवार, 14 जुलाई 2011
जुगाड़
एक बार एक विदेशी भारत घूमने आया। उसने भारत के बारे में बहुत पढ़ा और सुना था और उसकी भारत दर्शन की बड़ी इच्छा थी। इसलिए भारत भ्रमण के लिए वह अपनी महँगी कार भी साथ में लेकर आया ताकि आराम से पूरा भारत घूमा जा सके। अपनी कार में वह तमाम पर्यटन स्थलों की सैर कर रहा था। रास्ते में एक जगह उसकी कार खराब हो गई। उसने दौड़ भाग कर कई मैकेनिक बुलवाये लेकिन कोई उस कार को नहीं ठीक कर सका। आखिर में एक मैकेनिक ने दावा किया कि वह उसकी कार को ठीक कर सकता है। उसने कार का भली-भांति निरीक्षण-परीक्षण किया। उसने कार में लगी हुई एक लोहे की टूट गयी चकरी को निकाला और बताया कि इसे बदलना पडेगा। 'मैं अभी आया' कहकर वहां से चला गया। घण्टे-डेढ़ घण्टे बाद बाद जब वह लौटा तो उसके हाथ में लोहे की दो-तीन छोटी-छोटी वैसी ही चकरियां थीं। एक चकरी उसने कार में फिट कर दी और बाकी दो चकरियां उस विदेशी को पकड़ाते हुए कहा, ''इन्हें रख लीजिये, रास्ते में अगर फिर टूट जाये तो लगवा लीजियेगा।'' विदेशी उस मैकेनिक की तरकीब पर खुश भी हुआ और आश्चर्यचकित भी। उसने पूछा, ''यह कौन सी चीज है?' मैकेनिक ने जवाब दिया, ''साहब, इसे जुगाड़ कहते हैं।'' विदेशी ने यह शब्द भली-भांति दिमाग में बैठा लिया।
भारत दर्शन के बाद जब वह अपने देश लौटने को हुआ तो उसने सोचा क्यों न भारत के प्रधानमंत्री से भी मुलाकात की जाये और भारत दर्शन के अपने अनुभवों के बारे में उन्हें बताया जाये। बड़ी मुश्किल से उसकी मुलाकात प्रधानमंत्री से हुई। उसने भारत और यहां के लोगों की बड़ी तारीफ की और बताया कि उसे भारत में एक चीज बहुत पसंद आई और वह उसे अपने देश ले जाना चाहता है। प्रधानमंत्री के पूछने पर उसने जवाब दिया कि वह चीज है 'जुगाड़'। प्रधानमंत्री ने जवाब दिया, 'वह मैं आपको कैसे दे सकता हूँ, उसी से तो मेरी सरकार चल रही है।''
सोमवार, 27 जून 2011
हलुआ अंकल
गूगल इमेज से साभार |
अभी कुछ देर पहले ही समीर लाल जी की पोस्ट 'बचपन के दिन भुला न देना' पढ़ी। पढ़कर मजा तो आया ही साथ ही मेरे अपने बचपन और घर परिवार के बच्चों से जुड़ी घटनायें भी ताजा हो गईं। ऐसी ही एक मजेदार घटना आपसे शेयर करने को जी चाहता है।
मेरे बड़े भाई साहब केन्द्रीय सरकार के कर्मचारी हैं। यह घटना उन दिनों की है जब उनकी पोस्टिंग चण्डीगढ़ में थी। उनकी बड़ी बेटी भूमिका उस समय तीन वर्ष की थी। एक दिन भाई साहब ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे, उसी समय किसी का टेलीफोन आ गया। नन्हीं भूमिका ने, जिसे फोन की घण्टी बजने पर सबसे पहले झपट कर फोन उठाने का शौक था, अपनी आदत के मुताबिक तुरन्त फोन उठा लिया और बोली, ''हैलो, कौन बोल रहा है'' उधर से जवाब आया, ''बेटा, मैं अहलूवालिया अंकल बोल रहा हूँ। जरा अपने पापा जी से बात कराइये।'' नन्हीं बच्ची ने अपने पापा को फोन पकड़ाते हुए कहा, ''पापा, ये लो, हलुआ अंकल का फोन है।'' भाई साहब ने जब फोन पर बात की तब उन्हें पता चला कि 'हलुआ अंकल' कौन हैं। इस घटना को जब उन्होंने हम सबको सुनाया तब हम हंसते हंसते दोहरे हो गये।
नन्हीं भूमिका अब आठ साल की हो गई है लेकिन अब भी हम यह घटना सुनाकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वास्तव में ऐसी घटनायें ही हमारे बचपन को यादगार बना देती हैं और इन्हीं के बहाने हम बार बार अपने बचपन में लौटते रहते हैं।
गुरुवार, 19 मई 2011
भूले बिसरे मीत
कल मेरे सबसे खास दोस्त प्रेम की बेटी की बर्थडे पार्टी थी। पार्टी में पहुँचा, कुछ देर लोगों से गप शप की, मेरा तीन वर्षीय बेटा अपने सर्किल में व्यस्त हो गया और मैं अपने दोस्तों के बीच। लेकिन एक सरप्राइज मेरा इन्तजार कर रहा था। प्रेम अपने साथ कुछ दोस्तों को लेकर आया और मुझसे बोला, ''अब आये हैं अपने लंगोटिया यार, अब रंग जमेगा।'' मेरी बांछें खिल गयीं। उनमें से ज्यादातर दोस्त मेरी उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के सहपाठी थे। इधर पांच छह महीनों बाद उनसे मुलाकात हो रही थी। तभी प्रेम ने उनकी भीड़ को चीरते हुए एक युवक को सामने ला खड़ा किया और बोला, ''अबे पहचाना ये कौन है?'' मैंने एक क्षण उसे देखा और खुशी से लगभग चीख ही पड़ा, ''संतोष।'' और फौरन ही दोनों साथी गले लग गये। संतोष मेरा पुराना सहपाठी था। सन् 1993 में जब हमने आठवी कक्षा पास की, उसके बाद से आज मेरी उससे मुलाकात हुई थी, पूरे 17 साल बाद। वह अपने परिवार के साथ अब कोटा, राजस्थान में शिफ्ट हो गया था। उसके बाद दोस्तों की जो महफिल चली, गप्पबाजी हुई, उसमें ग्यारह बज गये। मेरा बेटा खेल खेल कर बोर हो गया और बोला, ''पापा घर चलना है।'' तब मुझे होश आया कि घर भी जाना है। जल्दी-जल्दी खाने की औपचारिकता करके हम फिर बतियाने बैठ गये। एक दूसरे का फोन नं0 लिया और अगले दिन मैनें उन सबको अपने घर पर आने का न्यौता दिया। पुराने दोस्तों से मिलकर न जाने शरीर में कैसी ऊर्जा दौड़ने लगी थी, मानों 100-200 ग्राम खून बढ़ गया हो।
घर पहुँचने पर श्रीमती जी ने बेटे से पूछा, ''बेटा आपको पार्टी में मजा आया?'' ''हॉं, मैं पलक (बर्थडे गर्ल) के साथ खिलौने खेल रहा था और पापा ढेर सारे अंकल के साथ जोर जोर से बात कर रहे थे और जोर से हँस रहे थे।''
सोमवार, 19 मई 2008
महान हस्तियों के प्रेरक प्रसंग
अकबर इलाहाबादी एक मशहूर शायर होने के साथ साथ एक सरकारी मुलाजिम भी थे। उनके घर अक्सर कई लोगों का आना जाना लगा रहता था। एक बार एक सज्जन उनके घर मिलने आए। अकबर उस समय जनानखाने में थे। उन सज्जन ने अपना कार्ड अन्दर भिजवाया जिस पर उनका नाम और पता तो लिखा ही था पर नाम के बगल में बीए कलम से लिखा हुआ था। अकबर साहब ने जब कार्ड देखा तो उनको उन महाशय की यह हरकत बड़ी नागवार गुजरी। वे बाहर नहीं आए बल्कि कार्ड के पीछे यह लिख कर भिजवा दिया-
शेख जी घर से न निकले और ऐसे लिख दिया,
आप बी-ए- पास हैं तो में भी बीवी पास हूँ।
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